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भारतीय राष्ट्रजीवन पुरातन है। एक तत्वज्ञान के अधिष्ठान से निर्मित समाज जीवनादर्शों से युक्त एक सांस्कृतिक परंपरा से जनजीवन परस्पर संबद्ध है। ईसाई या इस्लाम के आक्रमणकारी आगमन के बहुत पूर्व से विद्यमान है। अनेक पंथ, संप्रदाय, जातियां या कभी-कभी अनेक राज्यों में विभक्त जैसा दृश्यमान होते हुए भी उसकी एकात्मता अविच्छिन्न रही है। जिस मानवसमूह की यह एकात्म जीवनधारा रही है उसे "हिन्दू" इस नाम से संबोधित किया जाता है। अत: भारतीय राष्ट्रजीवन हिन्दू राष्ट्र जीवन है।
राष्ट्रीय एकात्मता का विचार इसी शुद्ध भूमिका में से होना चाहिए। इस वास्तविक राष्ट्र धारा से, उसकी परंपरा-आशा-आकांक्षाओं से एकरसता का निर्माण ही इन्टीग्रेशन (एकरसता) है।
इस राष्ट्रीय अस्मिता को पुष्ट एवं सबल करने वाले कार्य ही राष्ट्रीय हैं। इस अस्मिता से अपने को पृथक मान कर इस राष्ट्र की आशा-आकाक्षाओं के विपरीत, उनके विरुद्ध आकांक्षाओं को धारण कर अपने पृथक अधिकारों की मांग करने वाले समूह कम्यूनल (सांप्रदायिक) कहे जाना चाहिए। अपने विभक्त अधिकारादि की पूर्ति हेतु राष्ट्र के जनसमूह पर आघात करने वाले - यह आघात मतान्तर के रूप में, श्रद्धास्थानों को ध्वस्त या अपमानित करने के रूप में, महापुरुषों को अवगणित करने के रूप में या अन्य किसी रीति से हों- राष्ट्र विरोधी माने जाना चाहिए।
भारत में हिन्दू यह किसी भी प्रकार सांप्रदायिक (कम्युनल) नहीं कहा जा सकता। वह सदैव संपूर्ण भारत की भक्ति करने वाला, उसकी उन्नति तथा गौरव के हेतु परिश्रम करने के लिए तत्पर रहा है। भारत के राष्ट्र जीवन के आदर्श हिन्दु-जीवन से ही प्रस्थापित हुए हैं। अत: वह राष्ट्रीय है, कम्युनल (सांप्रदायिक) कदापि नहीं।
बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता- यह कल्पना निरी भूल है। जनतंत्र में बहुसंख्यकों के मत को व्यावहारिक जीवन में सर्वमान्य मानना आवश्यक है। अत: बहुसंख्यकों का व्यावहारिक अस्तित्व राष्ट्रीय अस्तित्व माना जाना उचित है। इस दृष्टि से भी हिन्दू-जीवन तथा उसके उत्कर्ष हेतु किये प्रयत्न राष्ट्रीय, सांप्रदायिक नहीं। मेजारिटी कम्युनेलिज्म (बहुसंख्यक की सांप्रदायिकता) यह प्रयोग जनतांत्रिक भाव के विरुद्ध हैं। परकीय राज्य में परकीय राज्यकर्ता सब जनता को दास तथा विभिन्न जातियों में विभक्त मानने के कारण वे मेजोरिटी, माइनारिटी, कम्युनेलिज्म जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं। उनकी दृष्टि से यह ठीक हो सकता है किन्तु स्वराज्य में मेजोरिटी का ही प्रभुत्व रहना उचित होने के कारण मेजारिटी कम्युनेलिज्म यह शब्द प्रयोग तर्क के, न्याय के, सत्य के विरुद्ध है।
ऐसी प्रवृत्तियों (राष्ट्र जीवन पर आघात करने वाली) का पोषण करना, उनको धारण कर चलने वाले समूहों की राष्ट्रविरोधी मांगों को पूरा कर उनकी संतुष्टीकरण की नीति अपनाना, तात्कालिक लाभ के लिए उनसे लेन-देन करते रहना, उनके संतुष्टीकरण के हेतु राष्ट्रीय जीवनप्रवाह के स्वाभिमान को, श्रद्धाओं को, हित संबंधों को चोट पहुंचाने की चेष्टा करना राष्ट्रजीवन के लिए मारक है। राष्ट्रीय एकात्मता इन चेष्टाओं से कभी सिद्ध नहीं हो सकती।
इन विपरीत राष्ट्रहित विरोधी भावनाओं का विरोध करने की सप्रवृत्ति को हिन्दू समाज की साम्प्रदायिकता कहना बड़ी भूल है, सत्य का विपर्यास करना है।
उपाय
भारत के विशुद्ध-हिन्दू राष्ट्र जीवन के सत्य का असंदिग्ध उद्घोष कर उसे पुष्ट, बलिष्ठ, वैभवयुक्त, सार्वभौम, निर्भय बनाना संपूर्ण भारत की जनता का सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य है, यह शिक्षा जातिपंथ निर्विशेष प्रत्येक व्यक्ति को दें। इस राष्ट्र की उत्कट भक्ति सब में जगाएं।
अहिन्दू व्यक्तियों की उपासना पद्धति को सन्मान्य एवं सुरक्षित रखते हुए भी राष्ट्र की परंपरा, इतिहास, जीवन-धारा, आदर्शों, श्रद्धाओं के प्रति आत्मीयता एवं आदर रखने का, अपनी आकांक्षाओं को राष्ट्र की आकांक्षाओं में विलीन करने का संस्कार उन्हें प्रदान करने का प्रबंध करें।
ऐहिक क्षेत्र में सब नागरिक एक से हैं, इस सत्य का पूर्णरूपेण पालन करें। जाति, पंथ आदि के गुट बनाकर नौकरियों में, आर्थिक सहायता में, शिक्षा मंदिरों के प्रवेश में, किसी भी क्षेत्र में, किसी भी प्रकार के विशेषाधिकार पूर्णतया बंद करें। माइनारिटी, कम्युनिटीज की बातें करना, उस ढंग से सोचना एकदम बंद करें।
स्वतंत्र राष्ट्र के व्यवहार के लिए उसकी अपनी भाषा होती है। संविधान ने राष्ट्र की अनेक भाषाओं में से सुविधा व सरलता की दृष्टि से हिन्दी को स्वीकार किया है। उसे सरलता के नाम पर दुर्बोध करना तथा उसका उर्दूकरण करना यह राष्ट्र की सार्वभौम स्वतंत्रता में सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक तुष्टीकरण की मिलावट करना है। राष्ट्र की राज्यव्यवहार-भाषा से यह व्यवहार या परकीय भाषा-दासता के भाव में देश को जकड़ने वाली अंग्रेजी को राज्यभाषा के समकक्ष बनाने का व्यवहार, राष्ट्रभक्ति के विशुद्ध भाव को नष्ट करने वाला है। राष्ट्रभक्ति की उत्कटता पर ही एकात्म भाव सर्वथा अवलम्बित होने के कारण भाषा संबंधी यह दुर्नीतियां त्वरित बंद हों।
एक देश, एक समाज, एक भावात्मक जीवन, एक ऐहिक हित संबंध, एक राष्ट्र अतएव इस राष्ट्र का व्यवहार एक राज्य के द्वारा एकात्म शासन के रूप में व्यक्त होना स्वभाविक है। आज की संघात्मक (फेडरल) राज्य पद्धति पृथकता की भावनाओं का निर्माण तथा पोषण करने वाली, एक राष्ट्रभाव के सत्य को एक प्रकार से अमान्य करने वाली अतएव विच्छेद करने वाली है। इसको जड़ से ही हटाकर तदनुसार संविधान शुद्ध कर एकात्म शासन प्रस्थापित हो।
धार्मिक दृष्टि से जितने प्रकार के आघात या अतिक्रमण होते हैं जैसे पूजास्थानों का विध्वंस, मूर्तिभंजन, गोहत्या, किसी भी सार्वजनिक या वैयक्तिक स्थान पर पीर-कब्रा, दरगाह, मजार, क्रास आदि अनधिकार रूप से खड़ा करना, अन्यायपूर्ण व्यवहार से धार्मिक शोभा यात्रा आदि को रोकना, मारपीट करना, धमकियां देना इनका निवारण करने के स्थान पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में इन अन्यायों का पृष्ठ पोषण करना, प्रोत्साहन देना यह आज की शासकीय नीति कटुता उत्पन्न करने वाली होने से इसका अविलब त्याग कर ऐसे अन्यायों को दृढता से दूर करने की नीति का पालन करना प्रारंभ हो।
हिन्दू के लिए धर्म की पुकार भारत में ही है। धर्म क्षेत्रों का आकर्षण उसे भारत में ही देशभर भ्रमण करने के लिए प्रेरित करता है। उसकी ऐहिक कामनाएं भारत से ही संबद्ध हैं। अर्थात् उसकी अंतर्बाह्र परिपूर्ण निष्ठा भारत पर ही है। अत: धर्म और देश आदि के आकर्षणों का उसके जीवन में परस्पर विरोध हो ही नहीं सकता, सदैव एकरूपता रहती है। उसमें डिवाइडेड लॉयलटी (विभक्त निष्ठा) नहीं है, लॉयलटी टू रिलिजन इन कान्ट्राडिक्शन टू ऑर इन अपोजिशन टू दि लॉयलटी टू कन्ट्री- राष्ट्रनिष्ठा के विरुद्ध या विभक्त संप्रदायनिष्ठा- हिन्दू के संबंध में सर्वथा असंभव है। उसके शुद्ध राष्ट्रीय समाज होने का यह सुदृढ प्रमाण है। उसे कम्युनल कहकर जिनकी डिवाइडेड और कभी-कभी संदेहास्पद निष्ठाएं हैं उनके स्तर पर लाकर हिन्दू को खड़ा करना अन्यायपूर्ण, अविवेकपूर्ण है।
हिन्दू का अन्य मत में धर्मान्तर होना एकनिष्ठ राष्ट्रभक्ति के स्थानपर विभक्तनिष्ठता यानी निष्ठाहीनता उत्पन्न होना है। देश, राष्ट्र की दृष्टि से यह घातक है। अत: इस पर रोक लगाना आवश्यक है। यह धर्मान्तर सोचकर, तत्वज्ञान आदि के अध्ययन-तुलना के आधार पर नहीं होता है। अज्ञान का लाभ उठाकर, दारिद्रय का लाभ उठाकर, भुला-फुसला कर, प्रलोभन देकर यह किया जाता है, अत: इसमें सद्भाव से किसी उपासना मत का अंगीकार नहीं है। सद्भावरहित इस प्रकार के धर्मान्तरण को रोकना न्याय है, अज्ञान, दारिद्रय से पीड़ित अपने बांधवों की उचित रक्षा का आवश्यक कर्तव्यपालन है।
हिन्दू तत्वज्ञान सर्व संग्राहक होने से अहिन्दु समाजों को आत्मसात करने की उसमें शक्ति है। मान्यवर पं. नेहरू ने इसको ध्यान में रखकर ही कहा था कि पूर्वेतिहास में आक्रमणकारी के रूप में आये हुए शक हूणादिकों को अपने राष्ट्रजीवन में हिन्दू ने जैसा समाविष्ट किया था वैसा ही मुस्लिम, ईसाई आदि का समावेश करना उचित है। मान्यवर पंडितजी ने इस भाषण में राष्ट्रीय एकता प्रस्थापना का, सर्वसंप्रदायों के एकीकरण का, उसमें एनिष्ठता निर्माण करने का सत्य मार्ग प्रदिष्ट किया है। परंतु हिन्दू को अवगणित कर हिन्दू-विरोधी तत्वों को गर्वोद्धत आक्रमणों में भी संतुष्टीकरण की नीति से अधिक उद्धत एवं आक्रमणशील बनाने से, हिन्दू स्वत्व, परंपरा को अपमानित कर हिन्दू को निर्वीर्य स्वसंरक्षण करने में भी अक्षम बनाने की आज की विकृत नीति से इस सत्य मार्ग का त्याग ही नहीं उसे नष्ट करना भी हो रहा है। यह विकृति दूर करना व अविच्छिन्न राष्ट्रनिष्ठा का अनुसरण करने वाले हिन्दू का वास्तविक स्थान मान्य कर अन्यों को उस मान्यता के अनुरूप उससे समरस बनाने की नीति अपनाना अनिवार्य रूप से आवश्यक है।
राष्ट्रीय एकता के नाम पर बनी हुई समिति ने अनेक असंतुष्ट गुटों को अपनी शिकायतें, मांगे आदि प्रकट करने का अवसर देकर विभक्तीकरण से विशिष्ट मांगों की पूर्ति होने की आशाएं उनमें जगाई हैं। सांप्रदायिकता का निवारण करने के लिए उसकी व्याख्या बनाकर मार्ग निर्धारण करने का दावा कर उनके स्वार्थ, तथाकथित अधिकार आदि की पूर्ति होने की अपेक्षा (आकांक्षा) उत्पन्न की है। इससे प्रत्येक संप्रदाय में आग्रह से विभक्त रहने की इच्छा बलवती हो सकती है। राष्ट्रीय एकता प्रस्थापित करने की रट लगाने से, उसका अभी अभाव है, यह धारणा जागकर दृढ होती जाती है। अत: अपने हेतु के मूल उद्देश्य के विपरीत ही इस समिति का अस्तित्व दिखाई देता है। अत: इसे अविलम्ब विसर्जित कर दिया जाय। राष्ट्रीय ऐकात्म्य के विकास के लिए यह बहुत उपकारक होगा।
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