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जोश और जुनून से भरे हिन्दुस्तानी नौजवान ने पिछले सत्तर सालों में हर क्षेत्र में निश्चित ही अपनी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज करवायी है। दुनिया के विकसित देशों के सामने अपने बुद्धि-कौशल का लोहा मनवाया है। दुनिया के ताकतवर देश हिन्दुस्तानी युवाओं की मेधा को नकारने की स्थिति में नहीं है— उद्योग, व्यापार, ज्ञान, तकनीक, कौशल, खेल और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कई शानदार उपलब्धियां भारत के युवाओं के नाम दर्ज हैं तथा हो रही हैं।
दूसरी तरफ लोकसभा और विधानसभा में हमारे माननीय नेताओं का आचरण दिन-प्रतिदिन शर्मसार कर रहा है। सांसद चाहे वे सरकार का समर्थन करने वाले हैं या विरोध में है, बैनर लहराने या पर्चियां फाडऩे और नारेबाजी करने को लोकतांत्रिक प्रक्रिया का जरूरी हिस्सा मान बैठे हैं। विपक्ष को यह क्यों लगता है कि वह सदन की कार्यवाही जब तक बाधित नहीं करेगा उसकी बात सुनी नहीं जाएगी? सत्तापक्ष का अहंकारपूर्ण रवैया और विपक्ष का अडिय़ल रुख, दोनों ही संसदीय गरिमा को ठेस पहुंचाने वाले हैं। संसद का पिछला सत्र इसी तरह बीत गया।
अधिकांश सांसदों का यही मकसद रह गया कि सदन में कुछ ऐसा किया जाए जो अगले दिन अखबारों की सुर्खियां बने। आप न्यूज में हैं तो जिंदा हैं और नहीं हैं तो कार्यकाल व्यर्थ।
अच्छा भाषण, महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा और बहस तथा मसलों पर स्वाध्यायी सांसदों के तर्क ही कभी खबर बनते थे लेकिन अब मीडिया का ध्यान पूरी तरह से अराजकता और तमाशों पर है। गंभीर चर्चा की न्यूज वैल्यू होनी बन्द हो गई, तमाशे ही चैनलों की टीआरपी बढ़ाते हैं। संसद में विद्वान, स्वाध्यायी और मुद्दों पर राजनीति करने वाले सांसदों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। अकूत धन सम्पदा और ऐश्वर्य के मालिक धनबल के दम पर सदनों में प्रवेश पा जाने में सफल हो रहे हैं। दूसरे, बाहुबली अपराधी और तीसरे वोट बैंकीय जाति समीकरणों के बूते विजय पाए लोग सदन में कोलाहल और कर्कशता पैदा करते रहते हैं।
संकीर्णताओं पर सवार होकर चुनावों में विजय पाए लोगों से विद्वत्ता की अपेक्षा करना ही गलत हो गया है। ऐसों का भारत सिर्फ यहीं तक सीमित है जहां तक इनका वोट बैंक है। क्या इनसे समग्र भारत के मुद्दों पर उद्वेलित होने की उम्मीद की जा सकती है। पंजाब, कश्मीर, मणिपुर और केरल पर उतने ही उद्वेलित होना जितना वह अपने चुनाव क्षेत्र से जुड़े मुद्दे पर होते हैं, ऐसी अपेक्षाएं क्या अनुचित हैं।
संसद में चर्चा-बहसें और मंथन धीरे-धीरे नगण्य होते जा रहे हैं। बहसों का स्थान शोर-शराबों ने ले लिया है। भारत की प्रतिष्ठा पर आंच आएगी तो इसकी तपिश निश्चित ही सबको झुलसाएगी।
यहां चिंता करने वाली बात यह भी है कि इस लोकसभा में हर तीसरा सांसद आपराधिक पृष्ठभूमि वाला है। इस आशय का खुलासा सांसदों द्वारा भरे गए शपथ-पत्रों से होता है। नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स ने शपथ-पत्र के विश्लेषण के आधार पर बताया है कि 186 (34 फीसदी) सांसदों के खिलाफ हत्या, हत्या का प्रयास, सांप्रदायिक सौहार्द बिगाडऩे, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ अपराध जैसे गंभीर मामले दर्ज हैं वहीं 82 फीसदी सांसद करोड़पती हैं।
आपराधिक मुकदमें और धनबल उनकी बुद्धिमत्ता पर सवाल भले ही नहीं उठाता हो, परन्तु यह प्रश्न तो उठता है कि इस देश के नीति-निर्धारकों ने आजादी के लिए लडऩे वालों और लोकतांत्रिक भारत का सपना देखने वालों ने जिस गणतंत्र की कल्पना की थी उस पर हम कितने खरे उतर रहे हैं। संसदीय गरिमा का हनन करने वाले नेताओं और राजनीतिक दलों को यह नहीं भूलना चाहिए कि देश का युवा आपको निरंतर वॉच कर रहा है और आवश्यकता पडऩे पर वह बदलाव की लड़ाई में कूद सकता है।
2012 में जब वयोवद्ध गांधीवादी नेता अन्ना हजारे ने आह्वान किया तो देशभर में नौजवान तिरंगा लेकर भारत की जय बोलता हुआ भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़कों पर उतर आया था। जाति, वर्ग, धर्म का भेद किये बिना देशभर के युवकों ने बदलाव के लिए कमर कस ली थी। इससे पहले पिछली सदी के आठवें दशक में भी संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर युवा उसी तरह उद्वेलित हुए जिस तरह गांधी, सुभाष और भगतसिंह के आह्वान पर कभी होते थे।
राजनीतिक दलों को यह बात समझने की आवश्यकता है कि वे इक्कीसवीं सदी के भारतीय युवा के सपनों को साकार करने वाला नेतृत्व दें। दल ये भी ध्यान रखें कि मौके-बेमौके देश के युवाओं ने उनके द्वारा दिए गए सीमित विकल्पों के चयन को भी नकारा है। समय का तकाजा है कि सर्वश्रेष्ठ उम्मीदवार के चयन का अवसर मतदाता को दिया जाना चाहिए।
याद रखें, भगतसिंह ने अपने लेख में युवाओं का आह्वान किया कि वे पढे, जरूर पढे पर राजनीति का ज्ञान हासिल करें और जब जरूरत दिखे तो मैदान में कूद पड़ें, अपना जीवन इसी काम में लगा दें।
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