31 जुलाई 2016

एक शहीद सैनिक, जो आज भी देश की सेवा में है!


देश की सरहदों पर देश की रक्षा करते हुए सैनिको के बारे मे तो आपने सूना ही है पर पिछले 45 सालों से बाबा हरभजन सिंह  की आत्मा अब भी देश की सरहदों की रक्षा मे ततपर है। भारत चीन की फ्लैग मीटिंग मे आज भी उस सहीद सैनिक की कुर्सी लगाई जाती है। चीन की तरफ से होने वाले किसी भी संभावित खतरे को भांपकर बाबा हरभजन सिंह की आत्मा हमारे देश की सेना को आगाह कर देती है। यह बात चीन के सैनिक भी मानते है।भारतीय पुलिस हो या सेना, इन जैसे सतर्क और बेहद संजीदा अमले में अंधविश्वास की कोई जगह नहीं होती. लेकिन ये कहानी है भारतीय सेना के विश्वास की, जो वास्तविक होकर भी अविश्वसनीय है। 
एक सैनिक है, जो मरणोपरांत भी अपना काम पूरी मुस्तैदी और निष्ठा से कर रहा है. मरने के बाद भी वो सेना में कार्यरत है और प्रति माह मिलने वाले वेतन के साथ साथ उसकी पदोन्नति भी होती है और हर वर्ष उनको घर जाने के लिये 2 माह की छुट्टी भी दी जाती है।  हैरान करने वाली ये दास्तान है बाबा हरभजन सिंह की। 30 अगस्त 1946 को जन्मे बाबा हरभजन सिंह, 9 फरवरी 1966 को भारतीय सेना के पंजाब रेजिमेंट में सिपाही के पद पर भर्ती हुए थे. 1968 में वो 23वें पंजाब रेजिमेंट के साथ पूर्वी सिक्किम में सेवारत थे. 4 अक्टूबर 1968 को खच्चरों का काफिला ले जाते वक्त पूर्वी सिक्किम के नाथू ला पास के पास उनका पांव फिसल गया और घाटी में गिरने से उनकी मृत्यु हो गई. पानी का तेज बहाव उनके शरीर को बहाकर 2 किलोमीटर दूर ले गया. कहा जाता है कि उन्होंने अपने साथी सैनिक के सपने में आकर अपने शरीर के बारे में जानकारी दी. खोजबीन करने पर तीन दिन बाद भारतीय सेना को बाबा हरभजन सिंह का पार्थिव शरीर उसी जगह मिल गया.
कहा जाता है कि सपने में ही उन्होंने इच्छा जाहिर की थी कि उनकी समाधि बनाई जाये. उनकी इच्छा का मान रखते हुए उनकी एक समाधि भी बनवाई गई. लोगों में इस जगह को लेकर बहुत आस्था थी लिहाजा श्रद्धालुओं की सुविधा को ध्यान में रखते हुए भारतीय सेना ने 1982 में उनकी समाधि को 9 किलोमीटर नीचे बनवाया दिया, जिसे अब बाबा हरभजन मंदिर के नाम से जाना जाता है. हर साल हजारों लोग यहां दर्शन करने आते हैं. उनकी समाधि के बारे में मान्यता है कि यहाँ पानी की बोतल कुछ दिन रखने पर उसमें चमत्कारिक गुण आ जाते हैं और इसका 21 दिन सेवन करने से श्रद्धालु अपने रोगों से छुटकारा पा जाते हैं।उनके मंदिर मे रात दिन सैनिको के साथ साथ श्रद्धालुओं का मेला लगा रहता है।

30 जुलाई 2016

हिन्दुस्तान की मातृभूमि के देसभक्त और महान योद्धा "तक्षक"


इन्होने सिखाया मातृभूमि के लिए प्राण दिए ही नही लिए भी जाते हैं !!

अरब मूल के लूटेरे मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से एक चौथाई सदी बीत चुकी थी। भारत की सोने की चिड़िया को लूटने के मकसद से उसके द्वारा तोड़े गए मन्दिरों, मठों और चैत्यों के ध्वंसावशेष अब टीले का रूप ले चुके थे, और उनमे उपजे वन में विषैले जीव जंतुओं का आवास था। यहां के वायुमण्डल में अब भी कासिम की सेना का घोर अत्याचार पसरा हुआ था और इस सन्नाटे मे बलात्कार की गयी बालिकायें और सरकटे युवाओं का चीत्कार गूंजता था।कासिम की नीति ने अपने अभियान में युवा आयु वाले एक भी व्यक्ति को जीवित नही छोड़ा था, इस कारण अब अखंड भारत के  क्षेत्र में हिन्दू प्रजा जनसंख्या के लिहाज़ से अल्पमत मे  ही थी। ज्यादातर सनातनियों ने अरबों के संहार के भय से इस्लाम स्वीकार कर लिया था। पक्के सनातनी बचते बचाते  कुछ निरीह परिवार यत्र तत्र दिखाई दे जाते थे, पर कहीं उल्लास का कोई चिन्ह नही था।
इसी मातृभूमि में जन्मा एक बालक जो कासिम के अभियान के समय मात्र आठ वर्ष का था, वह इस कथा का मुख्य पात्र है। उसका नाम था तक्षक। मुल्तान विजय के बाद कासिम के आतंकवादियों ने एक विशेष सम्प्रदाय हिन्दू जिनको वे काफ़िर पुकारते थे, ने गांवो शहरों में भीषण रक्तपात मचाया था। हजारों स्त्रियों की छातियाँ नोची डाली गयीं, इस कारण अपनी लाज बचाने के लिए हजारों सनातनी किशोरियां अपनी शील की रक्षा के लिए कुंए तालाब में डूब मरीं।लगभग सभी युवाओं को या तो मार डाला गया या गुलाम बना लिया गया। अरब ने पहली बार भारत को अपना धर्म दिखाया था, और भारत ने पहली बार मानवता की हत्या देखी थी। तक्षक के पिता सिंधु नरेश दाहिर के सैनिक थे जो इसी कासिम की सेना के साथ हुए युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो चुके थे। लुटेरी अरब सेना जब तक्षक के गांव में पहुची तो हाहाकार मच गया। स्त्रियों को घरों से खींच खींच कर उनकी देह लूटी जाने लगी।भय से आक्रांत तक्षक के घर में भी सब चिल्ला उठे। तक्षक और उसकी दो बहनें भय से कांप उठी थीं। तक्षक की माँ पूरी परिस्थिति समझ चुकी थी, उसने कुछ देर तक अपने बच्चों को देखा और जैसे एक निर्णय पर पहुच गयी।माँ ने अपने तीनों बच्चों को खींच कर छाती में चिपका लिया और रो पड़ी। फिर देखते देखते उस क्षत्राणी ने म्यान से तलवार खीचा और अपनी दोनों बेटियों का सर काट डाला।उसके बाद अरबों द्वारा उनकी काटी जा रही गाय की तरफ और  बेटे की ओर अंतिम दृष्टि डाली, और तलवार को अपनी छाती में उतार लिया। आठ वर्ष का बालक एकाएक समय को पढ़ना सीख गया था,उसने भूमि पर पड़ी मृत माँ के आँचल से अंतिम बार अपनी आँखे पोंछी, और घर के पिछले द्वार से निकल कर खेतों से होकर जंगल में भाग गया।


पचीस वर्ष बीत गए। तब  अब बत्तीस वर्ष का पुरुष हो कर कन्नौज के प्रतापी शासक नागभट्ट द्वितीय का मुख्य अंगरक्षक था। वर्षों से किसी ने उसके चेहरे पर भावना का कोई चिन्ह नही देखा था। वह न कभी खुश होता था न कभी दुखी। उसकी आँखे सदैव प्रतिसोध की वजह से अंगारे की तरह लाल रहती थीं।उसके पराक्रम के किस्से पूरी सेना में सुने सुनाये जाते थे। अपनी तलवार के एक वार से हाथी को मार डालने वाला तक्षक सैनिकों के लिए आदर्श था। कन्नौज नरेश नागभट्ट अपने अतुल्य पराक्रम, विशाल सैन्यशक्ति और अरबों के सफल प्रतिरोध के लिए ख्यात थे। सिंध पर शासन कर रहे अरब कई बार कन्नौज पर आक्रमण कर चुके थे,पर हर बार योद्धा राजपूत उन्हें खदेड़ देते। युद्ध के सनातन नियमों का पालन करते नागभट्ट कभी उनका पीछा नहीं करते, जिसके कारण बार बार वे मजबूत हो कर पुनः आक्रमण करते थे। ऐसा पंद्रह वर्षों से हो रहा था।

आज महाराज की सभा लगी थी। कुछ ही समय पुर्व गुप्तचर ने सुचना दी थी, कि अरब के खलीफा से सहयोग ले कर सिंध की विशाल सेना कन्नौज पर आक्रमण के लिए प्रस्थान कर चुकी है, और संभवत: दो से तीन दिन के अंदर यह सेना कन्नौज की सीमा पर होगी। इसी सम्बंध में रणनीति बनाने के लिए महाराज नागभट्ट ने यह सभा बैठाई थी। नागभट्ट का सबसे बड़ा गुण यह था, कि वे अपने सभी सेनानायकों का विचार लेकर ही कोई निर्णय करते थे। आज भी इस सभा में सभी सेनानायक अपना विचार रख रहे थे। अंत में तक्षक उठ खड़ा हुआ और बोला- महाराज, हमे इस बार वैरी को उसी की शैली में उत्तर देना होगा।

महाराज ने ध्यान से देखा अपने इस अंगरक्षक की ओर, बोले- अपनी बात खुल कर कहो तक्षक, हम कुछ समझ नही पा रहे।
महाराज, अरब सैनिक महा बर्बर हैं, उनके साथ सनातन नियमों के अनुरूप युद्ध कर के हम अपनी प्रजा के साथ घात ही करेंगे। उनको उन्ही की शैली में हराना होगा।महाराज के माथे पर लकीरें उभर आयीं, बोले- किन्तु हम धर्म और मर्यादा नही छोड़ सकते सैनिक। तक्षक ने कहा- मर्यादा का निर्वाह उसके साथ किया जाता है जो मर्यादा का अर्थ समझते हों। ये बर्बर धर्मोन्मत्त राक्षस हैं महाराज। इनके लिए हत्या और बलात्कार ही धर्म है। – पर यह हमारा धर्म नही हैं बीर, राजा का केवल एक ही धर्म होता है महाराज, और वह है प्रजा की रक्षा। देवल और मुल्तान का युद्ध याद करें महाराज, जब कासिम की सेना ने दाहिर को पराजित करने के पश्चात प्रजा पर कितना अत्याचार किया था। ईश्वर न करे, यदि हम पराजित हुए तो बर्बर अत्याचारी अरब हमारी स्त्रियों, बच्चों और निरीह प्रजा के साथ कैसा व्यवहार करेंगे, यह महाराज जानते हैं।
महाराज ने एक बार पूरी सभा की ओर निहारा, सबका मौन तक्षक के तर्कों से सहमत दिख रहा था। महाराज अपने मुख्य सेनापतियों मंत्रियों और तक्षक के साथ गुप्त सभाकक्ष की ओर बढ़ गए। अगले दिवस की संध्या तक कन्नौज की पश्चिम सीमा पर दोनों सेनाओं का पड़ाव हो चूका था, और आशा थी कि अगला प्रभात एक भीषण युद्ध का साक्षी होगा। आधी रात्रि बीत चुकी थी। अरब सेना अपने शिविर में निश्चिन्त सो रही थी। अचानक तक्षक के संचालन में कन्नौज की एक चौथाई सेना अरब शिविर पर टूट पड़ी। अरबों को किसी हिन्दू शासक से रात्रि युद्ध की आशा न थी। वे उठते,सावधान होते और हथियार सँभालते इसके पुर्व ही आधे अरब गाजर मूली की तरह काट डाले गए। इस भयावह निशा में तक्षक का सौर्य अपनी पराकाष्ठा पर था।वह घोडा दौड़ाते जिधर निकल पड़ता उधर की भूमि शवों से पट जाती थी। उषा की प्रथम किरण से पुर्व अरबों की दो तिहाई सेना मारी जा चुकी थी। सुबह होते ही बची सेना पीछे भागी, किन्तु आश्चर्य! महाराज नागभट्ट अपनी शेष सेना के साथ उधर तैयार खड़े थे। दोपहर होते होते समूची अरब सेना काट डाली गयी। अपनी बर्बरता के बल पर विश्वविजय का स्वप्न देखने वाले आतंकियों को पहली बार किसी ने ऐसा उत्तर दिया था। विजय के बाद महाराज ने अपने सभी सेनानायकों की ओर देखा, उनमे तक्षक का कहीं पता नही था।सैनिकों ने युद्धभूमि में तक्षक की खोज प्रारंभ की तो देखा-लगभग हजार अरब सैनिकों के शव के बीच तक्षक की मृत देह दमक रही थी। उसे शीघ्र उठा कर महाराज के पास लाया गया। कुछ क्षण तक इस अद्भुत योद्धा की ओर चुपचाप देखने के पश्चात महाराज नागभट्ट आगे बढ़े और तक्षक के चरणों में अपनी तलवार रख कर उसकी मृत देह को प्रणाम किया। युद्ध के पश्चात युद्धभूमि में पसरी नीरवता में भारत का वह महान सम्राट गरज उठा- आप आर्यावर्त की वीरता के शिखर थे तक्षक

भारत ने अबतक मातृभूमि की रक्षा में प्राण न्योछावर करना सीखा था, आप ने मातृभूमि के लिए प्राण लेना सिखा दिया। भारत युगों युगों तक आपका आभारी रहेगा। इतिहास साक्षी है, इस युद्ध के बाद अगले तीन शताब्दियों तक अरबों में भारत की तरफ आँख उठा कर देखने की हिम्मत नही हुई।  तक्षक ने सिखाया कि मातृभूमि के लिए प्राण दिए ही नही लिए भी जाते हैं 

अहिंसा परमो धर्मः यह स्लोक अधूरा सच है। पूरा सच अहिंसा परमो धर्मः, धर्म हिंसा तथेव् च्। अंग्रेजी मे इसका अर्थ है - non violence is the ultimate dharma, So too is violence in service of dharma  है। जय हिन्द।














































29 जुलाई 2016

चमत्कारी हत्था जोड़ी।



तंत्र शास्‍त्र में विशेष स्‍थान पाने वाली हत्‍था जोड़ी अपनी चमत्‍कारिक शक्‍तियों के कारण प्राचीन काल से प्रसिद्ध है। हत्‍था जोड़ी को साक्षात् महाकाली और कामाख्‍या देवी का रूवरूप माना जाता है। यह एक पौधे की जड़ है जो कंगाल को भी मालामाल बनाने की क्षमता रखती है। मां काली और कामाख्‍या देवी की साधना में दस महाविद्याओं का अभिन्‍न अंग है हत्‍था जोड़ी।

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कैसे प्राप्‍त करें -:
हत्‍था जोड़ी को प्राप्‍त करने का सबसे खास दिन रवि पुष्‍य का दिन माना जाता है। रविवार के पुष्‍य नक्षत्र में इस जड़ को प्राप्‍त करना चाहिए। हत्‍थो जोड़ी प्राप्‍त करने के पश्‍चात् गंगाजल से इसकी सफाई करें और 1 महीने तक इसे तिल के तेल में डालकर रखें। इसके पश्‍चात् अनुष्‍ठान कर के सिंदूर में डालकर स्‍थापति करें।    चामुंडा मंत्र का जाप करना शुभ फलदायक होता है।
लाभ -: 
– हत्‍था जोड़ी किसी कंगाल व्‍यक्‍ति को मालामाल बना सकती है।
– इस जड़ के प्रभाव में दरिद्रता और पैसे से संबंधित सभी प्रकार की परेशानियां दूर होती हैं।
– मुकदमें में जीत और शत्रु को परास्‍त करने में हत्‍था जोड़ी काफी मददगार सिद्ध होता है।
– इसकी जड़ वशीकरण और भूत-प्रेत जैसी बाधाओं को भी दूर करती है।
– आर्थिक परेशानियों से निपटने के लिए हत्‍था जोड़ी विशेष लाभकारी उपाय है।
– हत्‍था जोड़ी के प्रभाव में व्‍यापार में वृद्धि होती है।
इस एक उपाय से छप्‍पर फाड़कर मिलेगा धन
कैसे प्रयोग करें -:
– मंदिर अथवा तिजोरी में हत्‍था जोड़ी स्‍थापित करने के बाद रोज उसके आगे चामुंडा मंत्र का जाप करें।
– किसी महत्‍वपूर्ण कार्य के लिए जाते समय हत्‍था जोड़ी को अपनी जेब में रखें।
– शत्रु या विरोधी परेशान कर रहे हैं तो इस जड़ को ताबीज़ बना कर अपने गले में डाल लें।
पैसे की होगी बरसात अगर करेंगें ये उपाय
ध्‍यान रखें -:
– हत्‍था जोड़ी को कियी शुभ मुहूर्त में ही प्राप्‍त करें।
– इसकी पवित्रता को कायम रखने हेतु इसे स्‍वच्‍छ स्‍थान पर ही रखें।
– गलत कार्यों की पूर्ति हेतु इस जड़ का प्रयोग कदापि न करें।
– यदि आपके पास सिद्ध हत्‍था जोड़ी है तो इस बारे में किसी को न बताएं। ऐसा करने से हत्‍था जोड़ी का शुभ प्रभाव कम होता है।
हत्था जोड़ी प्राप्त करने के लिए ई मेल से अपना पूरा पता पिन कोड सहित आर्डर करें। पेमेंट ओन डिलिवरी के माध्यम से हत्था जोड़ी सिद्ध कर  डाक के माध्यम से भेजी जायेगी। एक हत्था जोड़ी की कीमत $50 है कूरियर चार्ज अतिरिक्त रहेगा। ई मेल pantbc1964@gmail.com

28 जुलाई 2016

सेना के लिए ठुकरा दी अमेरिकी कंपनी की नौकरी


आज के दौर में लड़कियां लड़कों से कदम से कदम मिला कर चल रही हैं। चाहे कोई भी क्षेत्र हो, अपने देश की लड़कियों ने बुलंदियों के झंडे गाड़ दिए हैं। ऐसा ही कुछ कर के दिखाया है जोधपुर की मेघना सिंह ने।जोधपुर की रहने वाली मेघना सिंह ने हाल ही में इंडियन आर्मी लेफ्टिनेंट के पद पर ज्वॉइन किया है। और ऐसा करके वह देश की अन्य बेटियों के लिए प्रेरणा बन गई हैं।

चेन्नई के SRM यूनिवर्सिटी से B.tech की डिग्री लेने के दौरान उनका कैम्पस प्लेसमेंट अमेरिकी कंपनी ‘म्यू सिग्मा’ में हुआ। इस नौकरी में उन्हें 25 लाख का पैकेज ऑफर किया गया, लेकिन भारत की इस बेटी का सपना था कि वह आर्मी की वर्दी पहने। इसी जज्बे की वजह से मेघना ने अमेरिकी कंपनी की नौकरी को ठुकरा कर इंडियन आर्मी में लेफ्टिनेंट के पद पर ज्वॉइन कर लिया।


मेघना ने जोधपुर के एमपीएस स्कूल से शुरुआती पढ़ाई पूरी करने के बाद माउंट आबू के सोफिया स्कूल से दसवीं और पिलानी के एक स्कूल से 12वीं अच्छे नंबरों से पास की। फिर उन्होंने बीटेक के लिए चेन्नई के एसआरएम यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया। बीटेक की पढ़ाई के दौरान उनका कैम्पस प्लेसमेंट हो गया और उन्हें 25 लाख का पैकेज ऑफर दिया गया। हालांकि, सेना में जाने की इच्छा होने की वजह से उन्होंने इस नौकरी को ज्वॉइन नहीं किया।

यह मेघना का जुनून और लगन ही है जिस कारण उन्होंने आर्मी, नेवी और एयरफोर्स तीनों का एंट्रेंस एग्जाम दिया और तीनों में ही क्वॉलिफाई किया। लेकिन उनका शुरू से ही सपना था कि वह भारतीय थल सेना का हिस्सा बनें, इसलिए वह थल सेना से जुड़ गई।
मेघना अपनी सफलता का श्रेय अपने परिवार को देती हैं। उनके परिवार में उनके माता-पिता और छोटे भाई-बहन है। मेघना के पिता राम सिंह कालवी कृषि उपज मंडी समिति के सेक्रेटरी हैं, जबकि मां विभा सिंह घर संभालती हैं। भारत की ऐसी शक्ति के हौसले को मेरा सलाम। देश के लिए कुछ कर दिखाने के जुनून के बारे आपकी क्या राय है ?

27 जुलाई 2016

सिख बलिदान की एक अनूठी मिसाल, बच्चों की क़ुरबानी दे दी पर इस्लाम नहीं स्वीकारा।



यह घटना तब की है  6 मार्च 1752 AD,  लाहौर (वर्तमान में पाकिस्तान) के गवर्नर मुईन उल मालिक, जिसे मीर मन्नू के नाम से भी जाना जाता है, ने उस क्षेत्र के सिखों को जान से मारने और उनकी छोटी जवान कुंवारी बेटियों को जिहादियों में बांटने का आदेश दिया। औरतों और बच्चों के लिए अलग सजा तय की जानी थी जिसके लिए उन्हें भूखे प्यासे लाहौर के कारागार में बंद रखा गया था। औरतों को इस्लाम कबूल ना करने की सूरत में गम्भीर परिणाम भुगतने की सजा सुनाई गयी। जब इन औरतों ने मौत को सामने देखकर भी झुकना स्वीकार नहीं किया, तब मीर मन्नू के सैनिकों ने उनके 300 मासूम बच्चों की हत्या कर दी और उनकी लाशों को भालों की नोक पर टांग दिया। यही नहीं, उन हैवानों ने बच्चों की अंतड़ियां काट कर शरीर के दूसरे हिस्से भी बाहर निकाल दिए और उनकी माला बनाकर उन माताओं के गले में पहना दिया।  
एक के बाद एक, हर सिख महिला ने मुसलमानों के ऐसे नृशंश अत्याचार सहे, लेकिन किसी ने भी मीर मन्नू के  आगे झुककर इस्लाम स्वीकार करने की हामी नही भरी । यह एक चमत्कार ही कहा जायेगा, जब तक वे मुग़ल सैनिक इन सभी  औरतों की हत्या कर पाते, सिख घुड़सवार अकालियों ने 4 नवंबर 1753 को हमला कर मीर मन्नू को मार डाला और इन महिलाओं को बचाने में कामयाब हो गए
पंजाब क्षेत्र में मुगलों द्वारा ऐसे घिनौने कार्यों के हज़ारों उदाहरण मिल जायेंगे जो सिखों ने नहीं बल्कि खुद मुग़ल इतिहासकारों ने लिखे हैं। इनमें से एक नूर अहमद चिस्ती लिखता है, ” मीर मन्नू ने एक मुस्लिम त्यौहार के दिन बहादुरी से 1100 सिखों का सर, धड़ से अलग कर दिया था।”

हैरानी की बात यह है, इन घटनाओं के दो सदियाँ बीत जाने के बाद भी इराक और सीरिया जैसे देशों में ये मुसलमान हज़ारों की संख्या में यहूदी औरतों और बच्चों को मार रहे हैं। मुसलमान दूसरे धर्म के लोगों को काफिर मानते हैं और खुद के द्वारा की जाने वाली हत्याओं को भी कुरान ए शरीफ से जोड़ देते हैं, जो वर्तमान समय मे जायज नही लगता है। मीर मन्नू ने जिन औरतों के बच्चों की हत्या की थी वे माएं चाहती तो इस्लाम स्वीकार  कर सकती थीं ? परंतु संसार मे जितने भी मनुष्य है किशी न किसी धर्म मे आस्था रखते है।ऎसे ही वे सिख औरतें धर्म को लेकर आस्थावान थी जिसकी वजह से उन्हें अपने बच्चों को खोना पड़ा। उन्होंने बलिदान की जो मिसाल दी वह इतिहास में सिख धर्म के सिद्धांतों की रक्षा के लिए किया गया सबसे बड़ा संघर्ष है जिसमे सैकड़ों जाने गंवानी पड़ीं थी ।
सिखों ने जो संघर्ष किया अथवा बलिदान दिया उसका एकमात्र लक्ष्य किसी भी सूरत में भारत में इस्लाम धर्म के प्रसार को रोकना भी रहा होगा, इस बात से भी इंकार नही किया जा सकता क्योंकि चाहे किशी भी धर्म का हो हत्या, बलात्कार, लूट करने वाले किशी भी व्यक्ति को साधारण समाज पसंद नही करता। उस ज़माने में भी सिख, इस्लाम के खतरनाक इरादों को मानवता के प्रति नफरत की भावना को समझ चुके थे। इस्लाम के घृणा भरे विचारों को रोकने का एकमात्र जरिया, किसी भी सूरत में इस्लाम को स्वीकार नहीं करना था, जो उन देशप्रेमी और धर्मप्रेमी सिख औरतों ने किया। उस समय इस्लामिक जिहाद के आगे दुनिया की कई ताकतवर सभ्यताएं भी दम तोड़ चुकी थीं। अगर भारत ने वैसा प्रतिरोध नहीं दिखाया होता तो  आजतक या तो सारे काफिर मार दिए गए होते या इस्लाम में धर्मान्तरित किये जा चुके होते। भारत के कई दूसरे लोगों ने अपनी जान बचाने के लिए इस्लाम को स्वीकार कर लिया और चोरी चुपके, घर के अंदर छिपकर हिन्दू या दूसरे धर्मों का निर्वाह किया करते थे।
समय के साथ इन छिपे हुए “काफिरों” ने इस्लाम में अपनी आस्था ज्यादा बढ़ा ली और आगे चलकर पाकिस्तान को जन्म दिया। वह देश जो आज दुनिया का सबसे बड़ा आंतकवाद उत्पादक देश है। हालाँकि हिन्दू से धर्मांतरित हुए पाकिस्तानी मुसलमान, कई पीढ़ियों तक होली दीवाली जैसे हिन्दू त्यौहार मनाते रहे और कई पाकिस्तानी आज भी हिन्दू सरनेम लगाते हुए देखे जा सकते हैं । यदि कोई हिन्दू अपना धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बनता है तो मुसलमान ख़ुशी के तहेदिल से लोगों का स्वागत करते हैं ।
यह उन औरतों के त्याग और बलिदान का ही परिणाम है कि जो पंजाब मुगलों के साम्राज्य और उनके आक्रमणों से सबसे ज्यादा प्रभावित था, सं 1800 तक महाराजा रणजीत सिंह द्वारा शासित हो गया | रणजीत सिंह ने जिहाद के नाम पर बनायीं गयी मस्जिदों को तोड़कर तथा अज़ान के समय सड़कों पर होने वाले मुसलमानों के मार्च पर रोक लगाकर भारत में इस्लाम के प्रसार को रोक दिया। यह उन्हीं की देन है कि आज आधे से ज्यादा पंजाब, या यूँ कहें तो उत्तर भारत में इस्लाम का प्रसार नही हो पाया है। 

26 जुलाई 2016

जहां सांप के काटने से नहीं मरता है कोई




भारत एक रहस्यमयी देश है और यहां आपको हर प्रांत में रहस्य से जुडी कोई ना कोई चीज जरूर मिल जाती है। जब बात सांपो की होती है तो रहस्य और गरमा जाता है। प्राचीन काल से सांपो को जहरीला प्राणी माना जाता है और यह बात बहुत सच भी है। हर कोई सांपो से खेलने के लिए मना करता है पर एक गांव ऐसा भी है जहां के लोगों को इन्हीं सांपो से खेलने में बहुत आनंद आता है। आश्चर्य की बात यह है कि इस गांव में सांप के काटने से कोई मरता नहीं है, बल्कि लोग खतरनाक कोबरा सांपो से खिलौने की तरह खेलते हैं 
बिहार के समस्तीपुर में एक गांव ऐसा है जहां सांप के काटने से आजतक किसी की मौत नहीं हुई है। नागपंचमी के खास मौके पर यहां लगने वाले सांपों के मेले में लोग सापों के साथ खेलते हैं। कई बार सांप उन्हें काट भी लेते हैं लेकिन उन्हें कुछ नहीं होता। यहां के लोगों की मानें तो माता भगवती के आशीर्वाद से सांप के काटने से उनपर कोई असर नहीं होता।समस्तीपुर से करीब 23 किलोमीटर दूर है सिंधिया घाट। यहां के लोग जहरीले सांप को पकड़ कर घरों में रखते हैं। जिस विषैले और खतरनाक कोबरा का नाम सुन कर सामान्य लोग कांप जाते हैं और सीना छूट जाता है, उन्हीं के साथ यहां के ग्रामीण खेलते हैं और उसके साथ करतब दिखाते हैं।यहां के लोग बडे ही उल्लास के साथ नागपंचमी का त्यौहार मनाते हैं और इस मौके पर यहां बहुत भीड लगी रहती है। इस अवसर पर विषहर देवता को दूध एवं धान की लावा तथा झाप चढ़ा ने की होड़ लगी रहती है।

25 जुलाई 2016

संकल्प से बना रेगिस्तान में तालाब।



भारत का गौरवपूर्ण इतिहास हमेशा से ही  सम्पूर्ण जगत मे सबसे सुंदर और विचित्र और सच्ची घटनाओ से भरा पड़ा है। भूतकाल ने इस देश और विदेश की  कुछ सुंदर विरासतों को बड़े त्याग और निस्वार्थ भाव से सहेज़ के रखा हुआ है।, और जब हम थोडा पीछे मुड कर देखते है तो आँखों से  सहसा अश्रु धारा छलक पड़ती है.तो इसी कड़ी में हम आज आपको बता रहे है एक ऐसे इन्सान की सच्ची कहानी जिसने न केवल अपने गाँव के लोगो के दुःख दूर किये वरन अपने अदम्य साहस से  रेगिस्तान में ही पानी से भरा तालाब बना डाला और जाते-जाते समाज को निस्वार्थ सेवा, प्रेम तथा अदम्य  इक्छाशक्ति की एक ऐसी मिसाल दे गया जो कई सदियों तक लोगों को प्रेरित करती रहेगी। कहते है दृढ़ संकल्प, पुरुषार्थ और लगन से इंसान असंभव को भी संभव कर देता है।  यह 
कहानी है एक  चरवाहे ‘मेघा’ की है  जिसने केवल अपने ही दम पर आज से500 साल पूर्व राजस्थान के थार के  रेगिस्तान में एक तालाब बना दिया था जो की आज भी जीवित होकर उनके नाम को अमरत्व प्रदान कर रहा है। इस तालाब की  नाम है मेघासर तालाब यह  तालाब बर्ड्स वाचिंग पॉइंट के रूप से दुनिया मे  प्रसिद्ध है। और दुनिया मे अपनी तरह के तालाबों मे जाना जाता है।

24 जुलाई 2016

लाल चौक मे 15 अगस्त को भारत की बेटी फहराएगी राष्ट्रीय ध्वज।

देशद्रोह के आरोपी, वामपंथी छात्र नेता कन्हैया कुमार को चुनौती देने वाली इस भारत की बेटी ने एक बार फिर देश के भीतर रहने वाले भारत की मातृभूमि के गद्दारों पर ज़ोरदार हमला बोला है। सोलह वर्षीय जानवी बैहल ने कहा है कि वह कश्मीर, श्रीनगर में लाल चौक पर तिरंगा लहराएंगी! उन्होंने कहा है कि यदि किसी में उन्हें रोकने की हिम्मत है तो वो कोशिश करके दिखाए। याद रहे आज से 24 साल पहले मुरली मनोहर जोशी और मोदी जी ने लाल चौक पर झंडा फहराया था और पाकिस्तान द्वारा पाले जा रहे अलगाववादियों को ललकारा भी था कि यदि हिम्मत है तो कोई हमको रोक ले। ज्ञात हो लाल चौक कश्मीर श्रीनगर मे अलगाववादियों और आतंकियो का गढ़ माना जाता है।
                                                           
भारत की इस बेटी की हिम्मत और ज़ज़्बे को भारत के हर देशभक्त का सलाम। इसके शब्द, देश के तमाम सेक्युलरों जो कश्मीर के अलगाववादीयों और आतंकियों से हमदर्दी रखते हैं, उनके लिए जानवी के बोल जोरदार तमाचे की तरह हैं!

23 जुलाई 2016

घाटी में हिन्दुओं के कत्ल और इस्लामिक आतंक का साया।




19 जनवरी, 1990 की अंधेरी रात घाटी में रहने वाले कश्मीरी पंडितों के लिए सबसे बुरे सपने के समान थी, जिसने उनकी ज़िन्दगी में हडकंप मच गया था। शांति से अपना जीवन बसर कर रहे कश्मीरी हिन्दुओं का जिस तरह कश्मीर से सफाया हुआ, वो बड़ा ही दर्दनाक था। ऐसा ही कुछ हुआ था, सर्वानन्द कौल प्रेमी (उम्र 64 साल) के साथ, जो कश्मीर के जाने माने poet भी थे और ज्ञानी माने जाते थे। पेशे से स्कूल मास्टर थे और रिटायर हो गए थे।
जब घाटी में हिन्दुओं के कत्ल और इस्लामिक आतंक के वारदातें बढ़ने लगी थी। सर्वानन्द के रिश्तेदारों ने उन्हें घाटी से भाग जाने की सलाह दी।लेकिन प्रेमी जी तो “धर्म-निरपेक्ष” परम्पराओं में यकीन रखने वाले थे। प्रेमी जी तो हर धर्म में विश्वास रखते थे, इसका प्रमाण उनके पूजा घर में कुरान की किताब के साथ अन्य धर्म ग्रंथों का होना था। वह हर धर्म को बराबर समझते थे और सबकी इज्ज़त करते थे। इसलिए वो अपना घर, अपनी जन्म भूमि को छोड़ कहीं नहीं गए। लेकिन सर्वानन्द कौल प्रेमी की ‘धर्म निरपेक्षता’ का ये भ्रम 29 अप्रैल, 1990 की उस शाम को टूट गया जब कुछ हथियारबंद इस्लामिक आतंकी उनके घर घुस आये और उन इस्लामिक आतंकियों ने घर के सभी सदस्यों को एक कमरे में इकठ्ठा कर दिया। आतंकियों ने एक सूटकेस में घर का सारा कीमती जेवर, नगदी, पश्मीना जैसी चीज़ों को भरने का हुक्म दिया। यहां तक कि, महिलाओं ने जो जेवर पहने थे वो भी इस्लामिक आतंकियों ने उनसे छीन लिए।


                                

इस्लामिक आतंकियों ने उस भरे हुए सूटकेस को उठाया और सदमे से विचलित बुजुर्ग सर्वानन्द कौल को अपने साथ चलने को कहा। उनका कहना था कि वो सर्वानन्द कौल प्रेमी को थोड़ी देर में छोड़ देंगे। ये देख कर उनके बेटे वीरेंदर कॉल (उम्र 27 साल) को लगा कि, इतनी रात को उसके बूढ़े पिता कैसे वापस आयेंगे और उसने भी साथ जाने की विनती की। और फिर बाप-बेटा दोनों इस्लामिक आतंकियों के साथ चले गए। उसके बाद वो लौट कर तो नहीं आये, मगर दो दिन बाद उनकी लाशें ज़रूर मिलीं। उनकी लास्शों की जो बदतर हालत इस्लामिक आतंकियों ने की थी, उसे देखकर एक बार तो हिटलर के नाज़ी भी शर्मा जायेंगे। भौं के ठीक बीच में जहाँ सर्वानन्द तिलक लगाते थे, उस हिस्से को गर्म सलाख से जला दिया गया था। उनकी खाल खींच ली गई थी। पूरे शरीर को सिगरेट से दागा गया था। हाथ पांव और अन्य हड्डियाँ तोड़ दी गई थीं। बाप और बेटे दोनों की आँखें नोच ली गई थीं। उन्हें फांसी पर टांग कर मारा गया था और फिर तस्सली के लिए लाशों को गोलियों से दाग गिया गया था।
ये कहानी सिर्फ सर्वानन्द कौल की नहीं है, ये उन तमाम कश्मीरी हिन्दुओं की है जो सच में धर्म-निरपेक्षता में विश्वास रखते थे और उसी के लिए शहीद भी हो गए। लेकिन आजकल के फर्जी ‘Seculars’ इस बात को क्या समझेंगे। जो केवल बोलने और दिखाने के लिए ‘धर्म निरपेक्षता’ का राग अलापते हैं।









22 जुलाई 2016

शिवमंदिर , जिसको आधार मानकर संसद भवन बना




भारतीय पुरातत्व विभाग के मुताबिक़, इस मंदिर को नवीं सदी में बनवाया गया था। कभी हर कमरे में भगवान शिव के साथ देवी योगिनी की मूर्तियाँ भी थीं, इसलिए इसे चौंसठ योगिनी शिवमंदिर भी कहा जाता है। देवी की कुछ मूर्तियाँ चोरी हो चुकी हैं। कुछ मूर्तियाँ देश के विभिन्न संग्रहालयों में भेजी गई हैं। तक़रीबन 200 सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद यहाँ पहुँचा जा सकता है। यह सौ से ज़्यादा पत्थर के खंभों पर टिका है। भारत देश में बहुत से रहस्य और चम्तकार देखने को अक्सर मिल जाते हैं। मंदिरो के इस देश में हजारों, लाखों साल पुराने मंदिर हैं जो अपनी-अपनी सुंदरता और प्रचीनता के लिए प्रसिद्ध हैं। आज हम बात कर रहे हैं एक ऐसे मंदिर की जो देखने में एकदम भारतीय संसद की तरह लगता है। हमारे संसद को माना जाता है कि इसे ब्रिटिश सरकार के वास्तुकारों ने बनाया था। मुरैना जिले के मितावली गांव में स्थित चौंसठ योगिनी शिवमंदिर अपनी वास्तुकला और गौरवशाली परंपरा के लिए आसपास के इलाके में तो प्रसिद्ध है, लेकिन मध्यप्रदेश पर्यटन के मानचित्र पर जगह नहीं बना सका है। इस मंदिर को गुजरे ज़माने में तांत्रिक विश्वविद्यालय कहा जाता था। उस दौर में इस मंदिर में तांत्रिक अनुष्ठान करके तांत्रिक सिद्धियाँ हासिल करने के लिए तांत्रिकों का जमवाड़ लगा रहता था। मौजूदा समय में भी यहां कुछ लोग तांत्रिक सिद्धियां हासिल करने के लिए यज्ञ करते हैं। 
एडविन ने इसी तर्ज पर बनाया संसद भवन
यह स्थान ग्वालियर से क़रीब 40 कि.मी. दूर है। इस स्थान पर पहुँचने के लिए ग्वालियर से मुरैना रोड पर जाना पड़ेगा। मुरैना से पहले करह बाबा से या फिर मालनपुर रोड से पढ़ावली पहुँचा जा सकता है। पढ़ावली ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। यही वह शिवमंदिर है, जिसको आधार मानकर ब्रिटिश वास्तुविद् सर एडविन लुटियंस ने संसद भवन बनाया


21 जुलाई 2016

जेएनयू से अब जाकर आई एक अच्छी खबर।



अपने ही देश का विरोध और देशद्रोही आतंकवादी अफ़ज़ल समर्थन के विरोध प्रदर्शन के बाद, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से यह सबसे पहली अच्छी खबर आई होगी। साल की शुरुआत में विश्वविद्यालय परिसर में हुए विवादित घटना से जुड़े छात्रों  से संबंधित एक नये घटनाक्रम में जेएनयू प्रशासन ने अगले सेमेस्टर के लिए उनके पंजीकरण पर रोक लगा दी है। 21 छात्रों की इस सूची में जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हेया कुमार, उमर खालिद और अनिरबान भट्टाचार्य के नाम भी शामिल है। मतलब, अब ये आस्तीन के सांप, वापिस यूनिवर्सिटी में प्रवेश नहीं ले पायेंगे! वैसे भी ये अधेड़ उम्र के हो चुके हैं और तीन-चार साल के प्रोग्राम को दशक में पूरा करने की योजना बना के बैठे हुए थे ताकि किसी प्रकार यहाँ गन्दगी डालने का अभियान जारी रहे!

9 फरवरी को हुए इस विवादित आयोजन में इन तीनों को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था और फिर बाद में जमानत पर रिहा कर दिया गया। याद हो की संसद पर हमले के साबित दोषी अफजल गुरू की बरसी के उपलक्ष्य में आयोजित किए गए कार्यक्रम के दौरान देश विरोधी नारेबाजी की गयी थी और प्रेस्टीटूट के तमाम तरह के ढोंग के बाद भी यह बात सिद्ध हो गई थी की वास्तव में वहां देश विरोधी नारे लगे थे।
छात्रों के नाम वाले सर्कुलर पर जेएनयू के रजिस्ट्रार प्रमोद कुमार की टिप्पणी अंकित है। जिस पर लिखा गया गया है: “अगले नोटिस तक इन छात्रों का पंजीकरण रोका जाता है”।
जहां विश्वविद्यालय प्रशासन ने घटनाक्रम को लेकर कुछ चुप्पी साध राखी है, वहीं प्रभावित छात्रों ने अदालत के आदेश का उल्लंघन बताते हुए इसका विरोध किया।
हमारा उनसे निवेदन है कि यदि कोई छात्र दुगुने समय में या तिगुने समय में एक प्रोग्राम पूरा करते हुए राजनीती में व्यस्त रहता है, तो उसे बाहर का रास्ता दिखाकर उसकी जगह किशी लायक छात्र को रखना चाहिए । यूनिवर्सिटी पढ़ने के लिए होनी चाहिए, न की वामपंथियों  अथवा किशी भी अन्य राजनैतिक पार्टी की देशविरोधी घटिया विचारधारा को आगे करने का एक माध्यम होना चाहिए। 










20 जुलाई 2016

जो झील मे गया पत्थर बन गया।


करोड़ों वर्षों से दुनिया हजारो आश्चर्यो से भरी हुई है,पर आज जो अद्भुत तथ्य हम आपको बता रहे है वो वास्तव में ही आपके होश उड़ाने के लिए काफी है, जी हां इस जगह का नाम है नाटर्न लेक जो उत्तरी तंजानिया के सुदूर प्रान्त में आज भी मौजूद है।




आपने राजा मिडास की  कहानी तो जरुर सुनी होगी। जिसके बारे मे कहा जाता है कि वो जिस चीज़ को भी छुता था वो चीज़ सोने की बन जाती थी। लेकिन क्या आपने ऐसी झील के बारे में सुना है कि जिसके पानी को जो भी छुता है वो पत्थर बन जाता है? आज हम आपको एक ऐसी ही झील के बारे में बता रहे है यह है उत्तरी तंजानिया की नेट्रान लेक जो उसके पानी को छूने वाले या उसपर गिर जाने वाले प्राणियों को पत्थर बना देने की क्षमता के कारण काफी चर्चित और विश्व विख्यात है। सूत्रों के मुताबिक़ फ़ोटोग्राफ़र निक ब्रांड्ट जब उत्तरी तंजानिया की नेट्रान लेक की तटरेखा पर पहुंचे तो वहां के दृश्य ने उन्हें चौंका दिया। झील के किनारे जगह-जगह पशु-पक्षियों के स्टैच्यू नज़र आने लगे। वे स्टैच्यू असली मृत पक्षियों के थे। दरअसल झील के पानी में जाने वाले जानवर और पशु-पक्षी कुछ ही देर में कैल्सिफाइड होकर पत्थर बन जाते हैं। वो अपनी किताब में आगे लिखते हैं कि  सारे प्राणी कलसीफिकेशन होने के कारण चट्टान की तरह मज़बूत हो चुके थे। बेहतर फ़ोटो लेने के लिए वे उनमें किसी भी तरह का बदलाव नहीं कर सकते थे। फ़ोटो लेने के लिए उन्होंने उन्हें वैसी ही अवस्था में पेड़ों और चट्टानों पर रख दिया। लेकिन यह बात आज भी खोजकर्ताओं को परेसान करती है कि  क्या ये सब महज़ केल्सीफिकेशन के कारण ही होता है या इसका कोई और भी गुप्त कारण हो सकता है। खैर जो भी कारण हो यह झील पर्यटकों को अपनी तरफ खूब आकर्षित करती है।

19 जुलाई 2016

Viswanathan Anand Aims To Qualify For 2018 Candidature Dismisses Retirement Reports



Brushing aside talks of retirement, former world chess champion Vishwanathan Anand said that he’s currently aiming to qualify for the Candidates tournament in 2018.

“This question has been asked many times. I don’t see any reason why I should think about retirement now,” the 46-year-old chess maestro said here after the players’ auction for the fourth edition of Maharashtra Chess League.

“My plan is to first look at tournaments and participate in grand chess tour that will take me to Brussels, St. Louis, London and other big cities. “I would definitely like to qualify for the next Candidates Chess which is roughly scheduled in March 2018. However, I will start only next year when the rating clock starts,” he added.
Asked whether India was lagging behind the chess leagues in Europe, especially the Bundesliga League of Germany, Anand said it would be difficult to have such leagues in India due to distances.
“In Europe you can travel between countries in no time, while in India traveling is a hassle,” he said.
“However, I did not play Bundesliga chess to grow as a player but to meet chess minds from all over the world. You get time to discuss, meet GMs, talk chess and their other experiences. I think that should be replicated here at the MCL,” he added. Anand backed the rapid format for the league saying the old wisdom of playing classical chess is dated.
“Even in classical chess when there is a tie you have to play rapid; so by playing rapid in league you are not unlearning anything,” he explained.
The Chennai ace also ruled out playing in the Chess Olympiad.
“It’s been done and dusted. I have had my share of playing Olympiads,” he said, jay hind.


18 जुलाई 2016

महान हिन्दू योद्धा हरी सिंह नलवा




वीरों को जन्म देने वाली इस भारत भूमि की गाथा कौन नही जानता , इसने हमेशा ऐसे ऐसे वीर राजाओं और योद्धाओं को जन्म दिया है जिन्होंने इस मिटटी की आन बान और शान के लिए ना केवल अपना पूरा जीवन कुर्बान किया बल्कि भारत विरोधियों के लिए भी हमेशा काल के रूप बनकर रहे ।

ऐसे ही एक वीर कि जो अफगानी हमलावरों और उनके सैनिकों को अपने यहाँ नौकर बनाकर रखता था और हर अफगानी केवल उस वीर के नाम से ऐसे थर थर कांपता था जैसे उसने नाम नही सुना हो बल्कि साक्षात् महा काल के दर्शन कर लिए हो पर सबसे बड़ा अफ़सोस इस बात का है कि आजादी के बाद चाटुकार वामपंथियों और कांग्रेस के मिलकर इस देश से महान हिन्दू योद्धाओं का इतिहास मिटा के रख दिया ताकि हिन्दुओं को कभी सच्चाई पता ना चल सके और उनको अपने भूतकाल और इतिहास पर कभी गौरव का अनुभव ना हो यानि कि सीधे सीधे हिन्दुओं की अस्मिता को कुचल डालने का गहरा षड्यंत्र .. पर सच्चाई भी कहीं छुपती है .



इस महान योद्धा जिनका नाम है हरी सिंह  नलवा, उनका जन्म 1791 में पंजाब के गुजरांवाला ( अब पाकिस्तान में ) में हुआ था । जब हरी सिंह नलवा बड़े हुए तो तो उन्होंने तत्कालीन महाराजा रणजीत सिंह जी द्वारा आयोजित एक प्रतिभा खोज कार्यकर्म में युद्ध कुशलता के ऐसे ऐसे करतब दिखाए कि स्वयं महाराज भी दंग रह गये और उन्होंने नलवा को अपनी फ़ौज में शामिल होने का न्योता दे डाला ।एक बार जंगल में महाराज रणजीतसिंह को बचाने के लिए नलवा शेर से जा भिड़े और उसको भी परास्त कर दिया तथा महाराज को आंच तक नही आने दी समय जैसे जैसे आगे बढ़ा हरी सिंह नलवा की ख्याति बढ़ने लगी और एक दिन महाराज रणजीत सिंह ने नलवा को अपना सेनानायक नियुक्त कर दिया । वे महाराज से सबसे विश्वासपात्र योद्धा बन गये । अपने युद्ध कौशल पे विशवास कह लीजिये या हरी सिंह नलवा का जूनून कह लीजिये , देखते ही देखते सेना में बढ़ौतरी होती गयी और फिर एक दिन सरदार हरी सिंह नलवा ने अफगान पर चढ़ाई करने की अपनी योजना से महाराज रणजीतसिंह को अवगत कराया । उनके अनुसार मुग़ल आक्रमणकारियों को सबक सिखाना अनिवार्य था ।
                                     
                                    

अपने युद्ध कौशल और जबरदस्त रणनीति की बदोलत नलवा ने अटक , मुल्तान और पेशावर को जीत लिया और वे महारज रणजीतसिंह के राज्य के अधीन हो गये। ये सब युद्ध 1813 से 1824 तक चलते रहे जिसमे हरी सिंह नलवा की वीरता ने मुगलों के छक्के छुड़ा दिए । मुग़ल उनसे इतने घबराते थे कि उनके आने की बात सुनकर ही नमाज तक छोड़कर भाग जाते थे और थर थर कांपते थे । हो भी क्यूँ ना नलवा ने उस समय चढ़ाई करके अफगान को जीता था।  इस कारण कोई अफगान की तरफ आँख उठाकर देखने की हिम्मत नही करता था । 30 अप्रेल 1837 को एक युद्ध में हरी सिंह नलवा लड़ते लड़ते वीर गति को प्राप्त हुए।  ये युद्ध जमरूद में हुआ था जिसमे हरी सिंह नलवा को 2 गोली लगी थी। पर बड़ी बात ये थी कि अपनी सहादत के बावजूद उन्होंने पेशावर को अपने हाथ से जाने नही दिया था।  ऐसे वीर थे बहादुर सरदार हरी सिंह नलवा जी।  हम उनको कोटि कोटि नमन करते हैं और आपसे आग्रह करते हैं कि भारत के एसे वीरों की कहानियां अपने बच्चों को जरुर सुनाएँ।ज्यादा से ज्यादा शेयर करें और याद रखें हिन्दुओं का इतिहास वीरता से भरा पड़ा है और सदेव हर हिन्दू को इस पर गर्व करना चाहिए । जय हिन्द