24 नवंबर 2016

धन और समाज

ca-pub-6689247369064277                                  मेरा भारत महान                                                         
                                              आजकल हमारे देश मे नोटों को लेकर काफी उथल पुथल मची हुई है।जेब मे पैसे हैं, जिनकी कोई कीमत नही।कागज के नोट हों,चाहे सोना  चाँदी हो या जमीन जायदाद, हमें इनको इकट्ठा करने का बड़ा सौक है। लोग ऐसी से प्रसंन्न होते हैं कि हमारे पास इतनी दौलत है। इसका उपयोग करने का ख्याल उनको नही आता। लेकिन दुनिया के कई देशों मे आप जायें तो वहां दौलत को जमा करने का इतना पागलपन नही दिखाई देता। आखिर धन के बारे मे हमारा रवैया इतना असैंर्गिक क्यों है?  एक तरफ आध्यात्मिकता की ऊंचाई और धन की इतनी पकड़।                                                                  हमारे धर्मो ने हमको समझाया कि धन व्यर्थं है, मिट्टी के समान हे। इससे धन की आकांसा तो नही छूटी, बल्कि उसके प्रति एक गलत रवैया पैदा हो गया। पूरा देश धन के लिए बीमार हो गया।जिसके पास दौलत नही है, वो दौलत न होने से दुखी है और जिनके पास धन है वो दौलत होने से दुखी है। जिस समाज मे दौलत को इकट्ठा करने वाले लोग पैदा हो जाते है,उस समाज की जिंदगी रुग्ण हो जाती है। दौलत को भोगने वाले लोग समाज मे होने चाहिए, जो दौलत को खर्च भी करते है और दौलत को फैलाते भी हैं। परंतु अपने वहां आदमी दौलत को इसलिए कमाता है, कि उसे तिजोरी मे बन्द करे। जितना धन तिजोरी मे बन्द होता है, उतना धन समाज के लिए व्यर्थ हो जाता है। धन समाज की रगों मे दौड़ता हुआ खून है यह जितनी तेजी से दौड़ेगा, उतना ही उस समाज आदमी जवान होगा। जहां जहाँ खून रुकेगा, वही वहीं बुढापा सुरु ही जायेगा।यही हालत भारतीय समाज की हो गयी है।               पैसे को लेकर एक असुरक्षा बोध है। हमारे लोगों के मन मे है कि पता नही कल क्या होगा, इसलिए धन को जमा करो और आज खर्च मत करो।जबकि पैसा एक ऊर्जा है, और इस ऊर्जा को बदलते रहना चाहिए। इसी मे ही देश और समाज की भलाई है। 

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