3 नवंबर 2016

किसे परवाह है परिंदों की

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मेरा भारत महान
किसी भी हरे पेड़ को सुखाना है तो उसके तने में एक कील ठोंक दीजिए, पेड़ कुछ दिनों मे अपने आप सूझ जायेगा। इसी प्रकार किसी पक्षी को तिल-तिल मारना है तो उसका एक पर काट दीजिए। किसी मानव को मौत के नजदीक ले जाना है तो उसके आस-पास की आबोहवा खराब कर दीजिए! आजकल विकास के नाम पर यही तो हो रहा है। आबादी कम करने पर ध्यान है नही और इसके बढ़ने के कारण सड़कों को चौड़ी करने के नाम पर पेड़ों की बलि ली जा रही है। कहते तो हैं कि एक पेड़ की जगह दस पेड़ नए लग जायेंगे। लेकिन क्या किसी ने देखा है पेड़ कहां लगे? शायद फाइलो मे तो लाखों छोड़ दीजिए करोड़ो पेड़ लग रहे होंगे। हालात यह है कि चौड़ी सड़कें तो खूब दिखेंगी लेकिन हरियाली कहीं नहीं होगी। इंसानों को जीवनदायी वातावरण देने वाले पेड़ों को सड़कों से ही नहीं उसके आस-पास से भी विकास की काली आंधी ले उड़ी है।

कुछ वर्ष पहले पीपल, नीम, बड़, अशोक और आम के लहराते दरख्तोंतों की हरियाली सड़को पर खूब दिखाई देती थी। ये पेड़ ऑक्सीजन का लेवल बढ़ाने के साथ साथ शहर का पर्यावरण  भी दुरुस्त रखते थे। पक्षियों को घरौंदा देते थे। लेकिन धन की भूख और भौतिक सुख-सुविधाओं की चाहत में सारे एकमंजिला मकान बहुमंजिली इमारतों में बदलते जा रहे हैं। हरियाली, सीमेंट-ईंट में चुनी जा रही है। पक्षियों के घोंसलों को मानवों के छोटे-छोटे फ्लैट खा गए। अब ना वो नीम की छांव है, ना सूरज की धूप। हां, एक अदद ड्रांइग रूम, दो बैडरूम और किचन का सूक्ष्म रूप किचन में रेडिएशन फैलाती सुख-सुविधाएं जरूर भरी हैं। इसी भौतिक सुख ने हमसे प्रकृति छीन ली है। किचन मे भरपूर चिकेन का इंतजाम है। अपने दिल से पूछिये क्या सच मे हमारे बच्चे नीम, पीपल, बड़ के पेड़ मे फर्क जानते हैं? हरियाली नष्ट होने का सीधा असर मनुष्य को तो झेलना पड़ ही रहा है, इसका  वह खुद  ही दोषी है। लेकिन सबसे बड़ी आफत पक्षियों पर पड़ी है। ना घरौंदे रहने को बचे हैं, ना खाने को कंद-मूल-फल है। ओलावृष्टि पहले भी होती थी लेकिन इतने पक्षी नहीं मरते थे। अब ओले गिरे नहीं, आंधी आई नहीं कि चारों ओर बेजान निरीह पक्षी नजर आते हैं। हमने उनका बसेरा छीन लिया है। देसी चिडिय़ा शहरों से लुप्त हो गई। सबसे बेहाल है सीधा और मानव जाति के लिए उपयोगी पक्षी कबूतर। 

पेड़ों की जगह सीमेंट के पाइप या झरोखे घोंसले हो गए। पहले लोग पक्षीयों को सुबह-शाम चुग्गा डालकर इनकी उदरपूर्ति तो करते ही हैं साथ ही इनके पंखों की हवा से दिल, दिमाग और दमा के रोगी स्वास्थ्य लाभ भी करते थे। लेकिन अब इनका यह आसरा भी मनुष्य छीनने पर आमदा है। शिकारी इन्हें मारकर होटलों में तीतर के नाम से बेच रहे हैं। राजधानी के मुख्य चुग्गा स्थलों म्यूजियम, जवाहरलाल नेहरू मार्ग पर त्रिमूर्ति चौराहा, बजाज नगर तिराहा, मयूर वाटिका, अजमेरी गेट को पर्यटकों की सुरक्षा के नाम पर बंद किया जा रहा है।

चेतावनी बोर्ड लगाए गए हैं। चुग्गा बेचने वालों का सामान जब्त किया जा रहा है। इसके पीछे क्या मानसिकता है? समझ से परे है। पर्यटक तो इन पखेरुओं के बीच आल्हादित होता है। पेरिस, लंदन, बर्लिन, न्यूयार्क, रोम, मुंबई जैसे पर्यटन के लिए मशहूर शहरों में भी पर्यटक स्थलों पर चुग्गा स्थल दिख जाएंगे। हां-यहां पक्षियों की सुरक्षा का ख्याल भी पूरा रखा जाता है। चुग्गा स्थलों के चारों ओर ऊंची रेलिंग लगी है ताकि जानवर उन्हें नुकसान नहीं पहुंचा पाएं। हमारे यहां भी ऐसा हो सकता है। सरकार को बस इतनी सद्बुद्धि आ जाए कि ये निरीह पक्षी बोझ नहीं उपयोगी हैं। इनकी बीट तक दवाओं में काम आती है। सरकार को इनका संरक्षण करना चाहिए। जनप्रतिनिधि, प्रबुद्ध नागरिक, संगठन, समाज आगे आएं और इन बेजुबानों की रक्षा करें। सरकार बाईलॉज में सेटबैक की तरह प्लांटेशन की शर्त क्यों नहीं जोड़ती? सड़क से पेड़ काटें तो उसकी जगह नए पेड़ की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। ठेकेदार का भगुतान तभी हो जब वह कम से कम एक साल पेड़ की देखभाल करे उसे संरक्षित करे। लेकिन सरकार हर चीज तो धन में तौलती है। मानव भी वही उपयोगी है जिनसे कुछ हासिल हो सके।

धिक्कार है! ऊंचे ओहदों पर बैठे लोगों की आंखों पर नोटों का पर्दा है। समय सबका बदलता है। उस पक्षी-जानवर की सोचिए जो विकास की दौड़ में अपना सब-कुछ गंवाकर अब सिर्फ आपसे ही आस लगाए बैठा है। समझ गए तो ठीक वरना उसकी (ऊपर वाले) लाठी कमजोर मत समझना।

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