15 अक्टूबर 2016

कवीर का बँटवारा ।

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bcpantblog.blogspot.in/ मेरा भारत महान
भगवान् शिव की नगरी काशी अपने ऐतिहासिक धरोहरों के लिए विश्व विख्यात रही है। यहां एक सेवक बढ़कर मसहूर लोगों ने जन्म लिया है। बनारस मे मगहर नाम तो पढ़ा । मगर कभी दर्शन नहीं हुए। मगहर बनारस की उस जगह का नाम है जिसके हिस्से ये कलंक जुड़ा हुआ था कि यहाँ जिसकी मृत्यु होती है उसके पुण्य का नाश हो जाता है, और उसको स्वर्ग प्राप्त नही होता है। मगर कवीर दास जी ने उस समय की सामाजिक बुराइयों,  विकृतियों, अव्यवस्थाओं और धार्मिक कुरीतियों के विरुद्ध खुलेआम बोलकर मगहर में ही अंतिम साँस लेने का निर्णय लिया। कबीर की मृत्यु, उसके पश्चात् अंतिम संस्कार के लिए हिन्दू-मुस्लिम में हुए विवाद और फिर उसका निपटारा होने की कहानी संभवतः सभी को ज्ञात होगी कि कैसे बिजली खान पठान और कासी के राजा के बीच कवीर के शरीर  पर अपना  अधिकार जमाने के लिए युद्ध हुआ था। मगर दोनों के हाथ उनके शरीर के बजाय गुलाब के फूल मिले। गोरखपुर यात्रा के समय सड़क के किनारे लगे बड़े से बोर्ड ‘सदगुरु कबीर साहेब की समाधि स्थली’ अपनी और आकर्षित करती है। 

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27 एकड़ में फैले इस समाधि स्थल में कबीरदास की आदमकद प्रतिमा ने बरबस ध्यान आकर्षित कर लेती है,  मगर मन उनके वास्तविक समाधि स्थल पर जाने को लालायित हो जाता है। कदम स्वतः ही सामने दिख रही इमारतों की तरफ मुड़ जाते हैं।हर किसी के मन में कबीरदास की मृत्यु के समय उपजे विवाद के कारण भी एक कौतूहल होता है। सामने दीवार पर समाधि स्थल पर आने वाले श्रद्धालुओं का स्वागत करता हुआ बड़ा सा बैनर और चारों और हरियाली के बीच शांति का असीम उत्साह होता है। भगवान भास्कर पश्चिम की तरफ बढ़े जाते हैं। ठीक सामने ‘मजार कबीर साहब’ की इबारत लिखी इमारत नज़र आती है।

इमारत के प्रवेशद्वार पर ‘सदगुरु कबीर समाधि’ का लिखा होना और भीतर कबीर की मूर्ति का होना उसके स्वतः ही हिन्दू धर्मावलम्बियों के होने के संकेत मिलते है। विस्तृत प्रांगण के एक तरफ पुस्तकालय, एक तरफ कबीर साहित्य विक्रय हेतु उपलब्ध है। वहाँ के कबीर पर अध्ययन करने के इच्छुक लोगों के लिए पढ़ने, रुकने, खाने-पीने आदि की व्यवस्था भी की जाती है। प्रांगण में खेलते बच्चे, कबीर-साहित्य के प्रति अनुराग दर्शाते लोग, चर्चाओं में लिप्त कुछेक लोग, हमारे आने का मंतव्य, स्थल, कार्य आदि जानने की उत्सुकता आदि से सुखद एहसास होता है।  मुसलमानों ने कबीर को वर्तमान में अपने मजहब का नहीं माना है? क्या मुसलमानों में कबीर-साहित्य के प्रति अनुराग नहीं रह गया है? हिन्दू धर्म के साथ-साथ इस्लाम की आलोचना करने वाले कबीर को क्या वर्तमान मुसलमानों ने विस्मृत कर दिया है? दोनों इमारतों की स्थिति, वहाँ आने वाले लोगों की स्थिति, दोनों तरफ की व्यवस्थाओं को देखकर, दोनों इमारतों में सेवाभाव से कार्य करने वालों को देखकर लगता है कि आज के समय में कबीर भी धार्मिक विभेद का शिकार हो गए हैं। वो और बात रही होगी जबकि उनके अंतिम संस्कार के लिए आपस में हिन्दू-मुस्लिम में विवाद पैदा हुआ होगा । किन्तु ‘मगहर’ में स्थिति कुछ और ही दिखाई पड़ती है।  इस्लामिक इमारत के नीचे मजार के रूप में कबीर नितांत अकेलेपन से जूझते दिखाई देते हैं। जहाँ पर एक इमारत, एक सेवादार, नाममात्र को रौशनी और चंद हरे-भरे पेड़-पौधे उनके आसपास है। किसी समय में तत्कालीन सामाजिक विसंगतियों पर बेख़ौफ़ होकर बोलने वाले कबीर आज इस विभेद पर गहन ख़ामोशी ओढ़े लेटे दिखते है। आज के जातिवादी कुप्रथा को खत्म करने को यदि कोई नया आयाम दे सकता है तो वो केवल और केवल कवीर का चिंतन हो सकता है। 

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