17 अक्टूबर 2016

प्रचीन वैदिक विज्ञान

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bcpantblog.blogspot.in/ मेरा भारत महान
भारतीय संस्कृति के असली सुत्रधार वेद ही हैं। वेदों ने ही भारतीय संस्कृति का निर्माण किया है। वेदों में हमें राजनीति, धर्म, विज्ञान, अर्थशास्त्र, ज्योतिष और सांख्यिकी का पता चलता है। प्रचीन भारतीय हों या अभी के विद्वान सभी वेदो के अनुसंधान पर ही कार्य करते हैं। दुनिया के सबसे महान वैज्ञानिक न्युटन और आईंस्टीन भी वेदों के अध्ययन से ही बहुत कुछ जान पाये हैं। आज हम इस लेख में आपको प्रचीन वैदिक विज्ञान के बारे में बतायेंगे जो आज भी कायम है।
जिन सिद्धांतों का विश्व अंधविश्वास कहकर उपहास उड़ाता रहा उनकी पुष्टि आज का विज्ञान कर रहा है। उदाहरणतः जैसे तरंगों के माध्यम से संजय द्वारा महाभारत का वर्णन आज के मोबाइल फोन, टीवी इत्यादि ने समरूप कर दिया। ‘युग सहस्र योजन पर भानु, लील्यो ताही मधुर फल जानु’ एक कड़ी है हनुमान चालीसा की, इसमें सूर्य की पृथ्वी से दूरी की सटीक लंबाई वर्णित है,  हनुमानजी ने एक युग सहस्त्र योजन दूरी पर स्थित भानु अर्थात सूर्य को मीठा फल समझ के खा लिया था। 


जुग (युग) सहस्त्र जोजन (योजन) पर भानु। लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥ 

1 युग = 12000 वर्ष
1 सहस्त्र = 1000
1 योजन = 8 मील

युग × सहस्त्र × योजन = पर भानु
12000 × 1000 × 8 मील = 96000000 मील

1 मील = 1.6 किमी
96000000 × 1.6 = 1536000000 किमी 

अर्थात हनुमान चालीसा के अनुसार सूर्य पृथ्वी से 1536000000 किमी की दूरी पर है


 (नासा की भी लगभग यही गणना है)


रक्तबीज की बारंबार उत्पत्ति मानव क्लोनिंग की पहली घटना थी। 7 रंगों में सूर्य की रोशनी का विभाजन, पेड़-पौधों में भी जीवन होता है, अंग प्रत्यारोपण इत्यादि बाकी विश्व का मानव 19वीं शताब्दी में जान पाया। फोटॉन के भीतर हिग्स बोसॉन की उपस्थिति जानने के लिए संपूर्ण विश्व के वैज्ञानिक महामशीन पर महाप्रयोग कर रहे हैं।

लेकिन यहां के जंगली(गाँव के) कृष्ण ने तो उससे भी सूक्ष्म प्राण, प्राण से सूक्ष्मतम आत्मा और आत्मा की यात्रा परमात्मा तक को परिभाषित कर डाला था गीता में। जिस नैनो तकनीकी की तुम खोज करने जा रहे हो, भारतीय विज्ञान का आधार ही वही था। अभी तो विश्व को अपने भौतिक साधनों से हजारों साल और खोजें करनी हैं शिव के अध्यात्म को समझने के लिए कि कैसे उन्होंने बिना इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप के जान लिया था कि सूक्ष्मतम न्यूक्लियस के चारों ओर घेरा होता है जिसका इलेक्ट्रॉन चक्कर लगाते हैं। शिवलिंग में स्थित बिंदु और उसका घेरा इसका प्रमाण है। E=mc² पर अभी बहुत शोध करोगे, तब जान पाओगे कि किस प्रकार सभी अणुओं की सामूहिक ऊर्जा जब केंद्रित हो जाती है तो अंतर्ध्यान होना, शारीरिक स्थानांतरण, दीर्घ अथवा संकुचित होना और इससे भी अधिक रहस्यमयी ‘काल अथवा समय’ की यात्रा कैसे संभव होती थी।


अभी तो शिव के ‘ॐ’ के नाद को समझने के लिए तुम्हें शताब्दियां चाहिए, जहां ‘आ’, ‘ऊ’, म’ के उच्चारण में अपने शरीर के एक-एक अणु की थिरकन को महसूस करोगे, देखोगे कि शरीर कैसे विलुप्त हो रहा है अध्यात्म के भंवर में। लेकिन शिव के इस विज्ञान को समझने के लिए तुम्हारी बड़ी-बड़ी भीमकाय मशीनों तथा ऊर्जा के प्रकीर्णन की जरूरत नहीं है अपितु कुण्डलिनी शक्ति के रहस्य की आवश्यकता है। मानव की वास्तविक क्षमता का आकलन अभी तुम्हारे लिए बहुत दूर की कौड़ी है। एक-एक बिंदु से कैसे ऊर्जा प्रवाहित होती है और उसको मस्तिष्क द्वारा नियंत्रित करके कैसे असाध्य कार्य किए जा सकते हैं ये जानने के लिए तुमको, इतिहासों को सहेजती गंगा के जंगलों में घुसना पड़ेगा।


गीता में मानव शरीर को दो भागों में विभक्त किया हुआ है- एक, जिसे हम देखते हैं और दूसरा, अवचेतन जिसे हम महसूस करते हैं। जब हम कोई भी प्रण लेते हैं तो मन का अवचेतन हिस्सा जागृत हो जाता है और वो भौतिक जगत के अणुओं के साथ अपना जोड़ स्थापित करने लगता है जिससे सभी जीवित अथवा निर्जीव आत्माएं अपना सहयोग देने लगती हैं और इसकी परिणति हमारी आत्मसंतुष्टि होती है जिसे सिर्फ हमारे अध्यात्म विज्ञान ने परिभाषित किया था।

लेकिन अब मानव भटक चुका था, पुरातन अध्यात्म की राह से। मानव मस्तिष्क को आसानी से काबू करने के लिए शिक्षित पुरोहित वर्ग ने सुलभ संहिताएं लिखीं। उन्होंने उन मूर्तियों में प्राण बताकर मानव को प्रेरित किया ईश्वर के करीब जाने के लिए। उन्होंने पुराणों, आरण्यक, ब्राह्मण, मंत्रों, विधानों आदि की रचना कर सरल अध्यात्म व मानव संहिता की नींव रखी।


असंख्य प्राकृतिक रहस्यमयी प्रश्नों को भगवान की महिमा व प्रारब्ध निर्धारित बताकर तर्कों पर विराम लगा दिया गया तथा कटाक्ष करने वालों को अधर्मी कहकर बहिष्कृत किया जाने लगा। एक अजीब-सी स्थिति का निर्माण हो गया था चरम विज्ञान के इस देश में। मानवों का ऐसा भटकाव देखकर कृष्ण बहुत विचलित हुए। ‘गीता’ वो रहस्यमयी अध्यात्म के शिखर की प्रतिबिम्ब है, जहां आज तक कोई भी ग्रंथ नहीं पहुंच पाया है। उसमें प्रत्येक पदार्थ चाहे वो निर्जीव हो अथवा सजीव, चाहे वो मूर्त हो अथवा अमूर्त, में अणुओं की ऊर्जा और उसको संचालित करने वाले प्राण की सूक्ष्म संज्ञा आत्मा है। अत्यंत अद्भुत व रहस्यमयी शिखर जहां प्राण अपनी धुरी का मोह छोड़ देते हैं और आत्मा इस जीवन चक्र से मुक्त हो जाती है।

विज्ञान का पहला नियम ‘पदार्थ न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है सिर्फ स्वरूप बदलता है तीन स्थितियों अर्थात ठोस, द्रव्य और वायु में’ लेकिन कृष्ण का शोध इससे भी गहन है जिसमें ‘आत्मा न तो उत्पन्न होती है और न नष्ट होती है सिर्फ शरीर बदलती है’।
उदाहरणत: निर्जीव लोहे में जब तक आत्मा रहती है उसका आकार स्थायित्व लिए रहता है लेकिन जब उसकी आत्मा साथ छोड़ देती है, वो चूर्ण की भांति बिखरने लगता है। अभी तो हम जीवित और निर्जीव वस्तुओं का ही भेद नहीं समझ पाए हैं तो उनका अध्यात्म बहुत कठिन तथा सहस्राब्दियों का प्रयोग है हम जैसे भौतिक मानवों के लिए। लेकिन इस अध्यात्म को भी मानवों की सत्ता-लालसा ले डूबी। अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र ने भारत का विज्ञान मार डाला। सहस्रों सूर्यों ने भारत को शताब्दियों तक अंधकार में डुबो दिया।
अध्यात्म अत्यंत दुर्लभ साधना है साधारण मनुष्यों के लिए जबकि मानव मस्तिष्क की क्षमता असीमित है और यह भी एक अकाट्य सत्य कि जो भी हम सोच लेते हैं वो हमारे लिए प्राप्य हो जाती है।

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