28 जून 2016

पाकिस्‍तान में प्राइवेट कंपनी में काम करने वाले इस लेखक ने लिख दिया एेसा उपन्‍यास, दंग रह गई दुनिया..!



दो साल पहले ही उदास नस्लें की सिल्वर जुबली एडिशन सामने आई थी। यह नावेल  जितनी पाकिस्तान में मशहूर थी, उतनी ही हिन्दुस्तान में भी। “उदास नस्लें”  की 50 बरस का पाठक विस्तार पा लिया और इस दौरान हर पीढ़ी के पाठकों ने इसे सराहा। इससे यह बात एक बार फिर साबित हो गयी कि रचना में अगर जान हो तो बगैर किसी लाबी, प्रोपोगेंड़ा और मीडि़या की मदद के भी एक नॉवेल  अपने बलबूते पर ही लम्बे समय तक जिंदा रह सकती है।
                                   
चंद बरस पहले अब्दुल्ला हुसैन ने कराची लिटरेचर फेस्टीवल में “उदास नस्लें” के बारे में चर्चा करते हुए कहा था कि उन्होंने यह नॉवेल 1956 में उस वक्त लिखा था, जब वो एक निजी कंपनी में काम करते थे और उनकी डयूटी किसी वीराने इलाके में थी, तब उन्होनें अपनी उकताहट से तंग आकर एक कहानी लिखने के इरादे से कलम उठाई थी, लेकिन चंद पन्ने लिखने के बाद ही उनके जहन में अचानक “उदास नस्लें” की कहानी फ्लैश की सूरत में गुजरी और नॉवेल का पूरा सांचा दिमाग में आ गया। इस तरह से यह नॉवेल 1961 में पूरी हुई। जब उन्होनें यह लिखना शुरू किया था तो उनकी उम्र 25 साल की थी।
“उदास नस्लें” की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसे आम पाठकों के साथ-साथ साहित्य के बड़े पारखियों से भी सराहना मिली। “उदास नस्लें” जब प्रकाशित हुई तो कृष्णचंद्र,आल अहमद सरवर और राजेन्द्र सिंह बेदी जैसे शख्सीयतों को भी इसने प्रभावित किया। कृष्णचंद्र ने तो अब्दुल्ला हुसैन को एक खत लिखा, जिसमें वे लिखते हैं ‘‘मोहतरम अब्दुल्ला हुसैन साहेब आप कौन है? क्या करते हैं? अदब का मसगला कब से इख्तियार किया? और किस तरह आप एक शोले की तरह भड़क उठे? अपना कुछ अता-पता तो बताइये। उदास नस्लें पढ़ रहा हूं, लेकिन उसे खत्म करने से पहले मुझे ये मालूम हो चुका है कि उर्दू अदब में एक आला जौहर दरियाफ्त हो चुका है।’’
इसी तरह से उर्दू के शीर्ष आलोचक शमसुर रहमान फारुकी ने एक बार कहा था कि “जिन साहित्यकारों को पढ़ कर वो रश्क करते थे, उनमें अब्दुल्ला हुसैन भी शामिल हैं।’’ पाकिस्तान के मशहूर शायर और नाटककार अमजद इस्लाम अमजद ने अब्दुल्ला हुसैन के योगदान पर कहा है कि ‘‘हमारे जैसे समाज में जहां पढ़ने वाले अपेक्षाकृत कम हैं और किताबें भी कम बिकती हैं, वहां 50 बरस तक लोगों के दिलों में जगह बनाना बहुत बड़ा कारनामा है और अब्दुल्ला हुसैन उन चंद लोगें में से एक हैं जिन्होनें ये कारनामा अंजाम दिया है।’’
“उदास नस्लें” जब प्रकाशित हुई तो इसकी भाषा विशेषकर इसमें मिलावट को लेकर सवाल उठाये गये और कहा गया कि इसमें पंजाबी शब्द ज्यादा हैं, उर्दू के आलोचक मुजफ्फर अली ने तो यहां तक कह दिया था कि “लेखक को नॉवेल लिखने से पहले उर्दू सीख लेनी चाहिए थी।”
दरअसल शुरू से ही उर्दू के साथ एक खास तरह की शुद्धतावादी रवैया हावी रहा है और इस बात पर खास ध्यान दिया जाता रहा है कि कहीं इसमें आंचलिक या देहातीपन की परछाई ना पड़ने पाये। जबकि उर्दू खुद ही ‘लश्करों की भाषा’ के तौर पर विकसित हुई है और कई भाषाओं से मिल कर बनी है। इस बारे में अब्दुल्ला हुसैन ने एक बार कहा था कि ‘‘मैंने जब नॉवेल लिखना शुरू किया था, तो मुझे बहुत अच्छी उर्दू नही आती थी, उल्टी सीधी जबान लिखी। मुझे भरोसा भी नही था कि इसे इतना पसंद किया जाएगा। मेरी खुशकिस्मती रही कि लोग पुराने जबान से जिसमें बड़ा लच्छेदार विवरण होता था तंग आये हुए थे इसीलिए उन्हें मेरी जुबान सुलभ महससू हुई और उन्होनें उसे सराहा”।

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