कांग्रेस ने खुद को भारत की सत्ता और सियासत का पर्याय बनाने में जितना वक्त लगाया है, विपक्ष के रूप में उसकी अधीरता और अनिश्चितता निराशाजनक है। कांग्रेस राष्ट्र निर्माण के यज्ञ में अपनी उपलब्धियों को बता सकती है, लेकिन यूपीए सरकार के एक दशक के दुर्घटनापूर्ण शासन उसकी उपलब्धियों को मटियामेट कर देता है।
दरअसल, सत्ता से बाहर होने के बाद अब कांग्रेस के सामने समस्या यह है कि वे मोदी सरकार को चाहे किसानों का संकट बताएं या बेरोजगारी की चुनौती गिनाएं, ऐसे मुद्दों पर उनकी अपनी विफलता और जिम्मेदारी के सवाल परिपक्व होते भारतीय लोकतंत्र की स्वाभाविक अपेक्षा और प्रतिक्रिया है। जाहिर है कांग्रेस विपक्ष में होकर भी सत्ता में रहेगी, और भाजपा का सत्ता में होकर भी कांग्रेस के प्रति विपक्षी रवैया बनाए रखना कांग्रेस की चिंता है।
कांग्रेस ने या यों कहें कि गांधी परिवार के नेतृत्व में कांग्रेस की सत्ता में वापसी साल 1980 में इंदिरा ने कराई थी, तब जनता सरकार का प्रयोग विफल हो गया था और कांग्रेस ही एकमात्र विकल्प थी। लेकिन मौजूदा दौर तीन कारणों से ऐतिहासिक है, पहला, केंद्र में सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ‘जनता पार्टी सरकार’ नहीं है, दूसरा कि, प्रधानमंत्री मोदी भले गुजरात से हों, लेकिन वे ‘मोरारजी देसाई’ नहीं हैं, तीसरी बात कि भाजपा में किसी ‘चौधरी चरण सिंह’ की संभावना नहीं है। यानी कांग्रेस के पास विकल्प यही है कि वह अपनी राजनीतिक जमीन को लगातार गंवाते जाने के क्रम को रोके और नेतृत्व अपनी भूमिका, योग्यता और क्षमता को साबित करें।
आसाम में हेमंत विश्वशर्मा से लेकर महाराष्ट्र के गुरूदास कामत के प्रकरण तक पार्टी नेतृत्व की उदासीनता और संवादहीनता की चर्चा सार्वजनिक हो चुकी है। क्या यह हास्यास्पद नहीं है कि पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए छत्तीसगढ़ के दिग्गज नेता अजीत जोगी को कांग्रेस की अनुशासन समिति ने लंबे समय से विचाराधीन प्रकरण पर निलंबन का फैसला तब सुनाया, जब उन्होंने कांग्रेस छोड़कर नई पार्टी बना ली। वामपंथी दलों के शासित राज्य त्रिपुरा में 6 कांग्रेस विधायकों का तृणमूल कांग्रेस में शामिल होना कांग्रेस-वामपंथ के बंगाल में महाजोत के असर की पहली रणनीतिक दुर्घटना है, केरल इसकी अगली कड़ी होगी।
दरअसल, कांग्रेस के दरकते हालात कांग्रेस में गांधी-आलाकमान को ‘नेहरूवादी’ नहीं मानो ‘लोहियावादी’ साबित करते हैं। वह लोहिया जो पुराने पड़ चुकी व्यवस्था से उपजी संस्थागत बीमारियों से निजात पाने के लिए उसमें मामूली बदलाव और बाहरी रंगरोगन नहीं, बल्कि उन्हें पूरी तरह गिराकर नई जरूरत के अनुरूप नया निर्माण करने में विश्वास रखते थे। सवाल है कि कांग्रेस का नवनिर्माण क्या हो सकता है?
कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा कि कांग्रेस को ‘फ्रेश आइडिया’ और ‘जेनेरेशनल चेंज’ की जरूरत है, और राहुल में कांग्रेस पार्टी को सत्ता में वापस लाने की ‘क्षमता’ और ‘अनुभव’ दोनों है। तो सवाल है कि बीते 15 सालों से राहुल गांधी कैसी भूमिका में थे? क्या यह माना जाए कि सोनिया गांधी में ‘क्षमता’ और ‘अनुभव’ अब नहीं रहा? मेरा मानना है कि पार्टी प्रियंका गांधी के रूप में मौजूदा आखिरी विकल्प को आजमाने के लिए आगामी उत्तरप्रदेश चुनाव बनाम 2019 के लोकसभा चुनाव में से बेहतर संभावना और कमतर जोखिम का आकलन कर रही है।
वहीं कांग्रेसी राहुल की अध्यक्ष पद पर प्रोन्नति को बिहार में करारी चुनाव हार के बाद भी अमित शाह को दोबारा भाजपा अध्यक्ष चुने जाने के निर्णय जैसा आश्चर्यजनक बनाना चाहती है, जबकि हकीकत यह है कि कांग्रेस के संगठनात्मक बदलाव और नये नेतृत्व का निर्णय उनके अपने आत्मविश्वास पर नहीं, बल्कि गैर-भाजपावाद और उत्तरप्रदेश में भावी गठबंधन की संभावना पर अटक गई है। तो क्या राहुल, इंदिरा हैं?
आजादी के बाद कांग्रेस में विभाजन का दौर आने में लगभग 20 साल लगे। इंदिरा ने भी ‘इंदिरा कांग्रेस’ बनाई और 21वीं सदी आते-आते इंदिरा कांग्रेस दोबारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नाम-रूप में आ गई। लेकिन बीते दो सालों में कांग्रेस अपनी वैचारिक जमीन, जनमत और चुनावी जमानत के साथ-साथ स्थानीय नेताओं को भी गंवाती जा रही है। लेकिन जरा इंदिरा के पार्टी अध्यक्ष बनने की घटना को समझें क्योंकि उस दौर में भी कांग्रेस हारने लगी थी, जिम्मेदारियों को न उठा पाने के अपने आकलन के आधार पर इंदिरा ने 1959 में नागपुर के कांग्रेस अधिवेशन से पहले पार्टी अध्यक्षा बनने से इंकार कर दिया था।
यही नहीं गृहमंत्री जीबी पंत और कांग्रेस अध्यक्ष यूएन ढेबर के दबाव में इंदिरा तैयार तो हो गर्इं, लेकिन उसी रात उन्होंने फिर से अपना मन बदल लिया। तब पंत ने उन्हें बताया कि सुबह के अखबारों में इंदिरा के अध्यक्ष बनाए जाने की खबर जा चुकी है। अगले दिन अखबारों में इंदिरा की अयोग्यता को लेकर टिप्पणियां और लेख छपे। ऐसी टिप्पणियों ने इंदिरा को न केवल खुद को साबित के लिए प्रेरित किया, बल्कि उन्हें एहसास था कि यदि वे अध्यक्ष नहीं बनतीं, तो उनका मजाक बनाया जा सकता था।
क्या राहुल गांधी प्रेरणारहित हैं और उनकी क्षमताओं को लेकर होने वाली चर्चाएं उन्हें प्रभावित नहीं करते? करते होंगे, लेकिन कांग्रेस आलाकमान स्तर से लगातार अदूरदर्शी फैसलों से संकेत मिलता है कि गांधी परिवार में नेतृत्व को लेकर भीतरी और भारी असमंजस है।
मधु लिमये ने एक जगह लिखा है कि, "महात्मा गांधी राष्ट्रीय आंदोलन के हित में दो बैलों, नेहरू और पटेल की जोड़ी को जोत चुके थे लेकिन लोहिया और जेपी को जनक्रांति की बैलगाड़ी में जोतने वाला कोई गांधी न था।" राहुल और प्रियंका के रूप में कांग्रेस के पास "उत्तराधिकारी गांधी" तो हैं, लेकिन आंदोलन और विजन की प्रेरणा देने वाला कोई नया 'महात्मा गांधी' नहीं है।
साल 1966, क्रिसमस के दिन इंदिरा ने प्रेस से बातचीत में अपने विरोधियों को लेकर कहा था कि, ‘अब सवाल यह है कि पार्टी किसे चाहती है और देश की जनता किसे चाहती है? देश की जनता के बीच मेरी लोकप्रियता और साख निर्विवादित है।’ क्या कांग्रेस प्रथम परिवार इंदिरा के इस जवाब को दुहराने का साहस रखते हैं? यही कांग्रेस की सीमा और समस्या है, तो क्या एक विकल्प यह हो सकता है कि कांग्रेस में मार्गदर्शक मंडल की संभावना पर विचार किया जाए?
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