नीतीश बाबू के मंत्री भीम सिंह ने न सिर्फ़ शहीदों का अपमान किया है, बल्कि मीडिया का भी अपमान किया है। भीम सिंह जब भी मुंह खोलते हैं तो समझ में आ जाता है कि कितना पढ़े-लिखे हैं। पहले उन्होंने कहा- “जवान तो शहीद होने के लिए ही होते हैं न! सेना और पुलिस में नौकरी क्यूं होती है?” लब्बोलुआब यह है कि जवान शहीद होने के लिए होते हैं और नेता अपने सुख और सियासत के लिए उन्हें शहीद करवाने के लिए।
पत्रकार ने जब पूछा कि आप गए नहीं वहां? तो उनका जवाब था- “आपके बाबूजी गए थे वहां? आपकी माताजी गई थीं वहां?” मीडिया और पत्रकारों का अपमान करने वाले इस बयान का जवाब यह है कि उस पत्रकार के पिताजी और माताजी वहां गए या नहीं गए, लेकिन इतना तय है कि ऐसे घटिया नेताओं के मां-बाप जो भी जहां कहीं भी होंगे, आज ज़रूर अपने आपको कोसते होंगे कि हमने कैसी नालायक औलादों को जन्म दिया, जो उल्टे हमारी कोख को ही कलंकित करने में जुटे हैं।
जब विवाद बढ़ा तो नीतीश बाबू के निर्देश पर भीम सिंह ने इन शब्दों में खेद प्रकट किया- “तोड़-मरोड़कर परोसे गए बयान से भी जो देशवासियों को दुख पहुंचा है, उसके लिए मैं खेद प्रकट करता हूं।“ साफ़ है कि भीम सिंह अब भी अपने पिछले बयान का बचाव कर रहे हैं और चैनलों पर जो दिखाया जा रहा है और जिसे पूरा देश सुन रहा है, उसे वे तोड़-मरोड़कर पेश किया हुआ बता रहे हैं। यानी भीम सिंह को कोई पश्चाताप नहीं है। दूसरी बात कि वे सिर्फ़ खेद जता रहे हैं। माफ़ी नहीं मांग रहे। …और जब वे माफ़ी मांग ही नहीं रहे तो माफ़ी के काबिल कैसे हो सकते हैं? इसलिए नीतीश कुमार को चाहिए कि वे भीम सिंह को फ़ौरन अपने मंत्रिमंडल से बर्खास्त करें।
भीम सिंह जिस सरकार का हिस्सा हैं, उसी के लिए उन्होंने एक बार कहा था कि उसका कान ख़राब हो गया है। आज पूरी सरकार कह रही है कि उनकी ज़ुबान ख़राब हो गई है। ज़ुबान ख़राब। कान ख़राब। आंखें भी ख़राब, क्योंकि जवान इन्हें मरने के लिए बने हुए दिखाई देते हैं और जनता कीड़े-मकोड़ों की तरह दिखाई देती है। ऐसे नेताओं को वोट देकर संसद और विधानसभाओं में नहीं भेजना चाहिए, बल्कि इनके लिए चंदा इकट्ठा कर इन्हें अस्पताल में भेजना चाहिए।
और आख़िर में एक और सच्चाई पर से पर्दा हटा दूं। देशवासी तो इतने से ही परेशान हुए जा रहे हैं कि शहीदों को रिसीव करने पटना एयरपोर्ट पर कोई मंत्री क्यों नहीं पहुंचा या एक बेलगाम मंत्री ने उल्टा क्यों बोल दिया, जब आप यह सुनेंगे कि आरा में शहीद शंभू शरण की चिता को गोइठा (गोबर से बने उपलों) और किरासन तेल से जलाया गया, तो आपको कैसा लगेगा? क्या इसे ही राजकीय सम्मान कहते हैं? न चंदन की लकड़ी, न घी। बिहार की सरकार ने न तो कहीं कोई इंतज़ाम किया, न एक भी मर्यादा निभाई।
इसीलिए आइए, हम अपने मृतक जवानों को तो श्रद्धांजलि दें, लेकिन अपने ज़िंदा नेताओं के लिए भी शोक ज़रूर रखें, क्योंकि उनकी आत्मा-मृत्यु कब की हो चुकी है और इस लोकतंत्र में वे अपने शरीर को एक लाश की तरह ढोए चले जा रहे हैं। साल के तीन सौ पैंसठ दिन ऐसे नेताओं की तेरहवीं मनाई जानी चाहिए। शहीदो, हम शर्मिंदा हैं, क्योंकि ऐसे नेता ज़िंदा हैं!
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