17 सितंबर 2016

वास्तुशास्त्र और फेंगशुई

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हर देश की अपनी संस्कृति होती है, अपनी मर्यादायें होती हैं। चीन के धार्मिक ग्रन्थ ‘टायो’ पर आधारित फेंगसुई प्राचीन चीनी दार्शनिकों के चिन्तन का परिणाम है, जिसमें इस बात पर गहन चिंतन किया गया है कि  प्राकृतिक शक्तियॉ का  प्रभाव मानव जीवन और उसके निवास स्थान  को किस तरह और कैसे प्रभावित करता है। फेंगसुई के शाब्दिक अर्थ की व्याख्या करें तो फेंग का अर्थ है वायु तथा सुई का अर्थ जल से है । फेंगसुई शब्द वायुतत्व और जलतत्व का समन्वय है।

विश्व की सबसे पुरातन और प्रथम वैदिक संस्कृति के कारण चीनी फेंगसुई के लगभग सभी सिद्धान्त भारतीय वास्तुशास्त्र से मिलते-जुलते है। सिर्फ दो  ही सिद्धान्त एकदम विपरीत है। चीन में दक्षिण दिशा को शुभ माना जाता है जबकि भारत में यह दिशा अशुभ मानी जाती है। चीन में आग्नेय कोण में जल संग्रह, फव्वारा, पौधे लगाना एंव मछली घर रखना अत्यन्त सुखदायी माना जाता है, जबकि भारत में आग्नेय कोण में जल से समबन्धित वस्तुयें रखना अहितकारी माना जाता है। फेंगसुई के ये दो सिद्धान्त भारतीय विचारधारा से भिन्न माने जाते है।परन्तु ऐसा दोनों देशों की भिन्न-भिन्न जलवायु के कारण प्रतीत होता है। चीनी फेंगसुई हो या भारतीय वास्तुशास्त्र दोनों ही अपने-अपने क्षेत्रों की भौगोलिक परिस्थितियों, पर्यावरण तथा सांस्कृतिक पहलुओं का प्रतिनिधित्व करती है। अतः दोनों विदयाओं का जनमानस के जीवन में प्रयोग को सकारात्मक दृष्टि से देखा जाता है।

इतिहास गवाह है कि एक संस्कृति का दूसरी संस्कृति पर सांस्कृतिक आक्रमण भी होता है। चीन के नजरिये से इस बात की पुष्टि भी होती है। फंगसुइ के भारत व विश्व के अन्य देशों में प्रचार व प्रसार को इसी सन्दर्भ में देखा जाना व्यावहारिक है। 






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