29 सितंबर 2016

ध्यान शक्ति से खोलें दिव्य दृष्टि।

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बिन गुरु ज्ञान कहाँ से पाऊं, दीजो ध्यान हरी गुण गाऊँ। ध्यान की महीमा अपरम्पार है। तभी तो  दुनिया के सभी मत मतान्तर ध्यान, ध्यान, ध्यान कह रहे है, क्या है ये ध्यान? । आपने कभी गौर किया होगा, जब किसी क्लास का अध्यापक या किसी धर्म का धर्मगुरु अपने अनुयायियों को शिक्षा का ज्ञान दे रहा होता है, सभी जिज्ञासु लोग उनकी बातों को बड़े ध्यान से सुन रहे होते हैं, उनकी बातों को समझ रहे होते है और उनको अपनी आँखों के सामने देख भी रहे होते हैं। कभी आप एक बात का गौर करना, जब उस अवस्था मे आपका ध्यान एक पल के लिए हट जाए और कहीं और चला जाए, तो आप उनके सम्मुख होते हुए भी ना उनकी बातों को सुन पाएंगे, ना ही समझ पाएंगे और ना ही उस पल के लिए आप उनको देख पाएंगे। क्योंकि उस पल आप वहाँ थे तो सही, लेकिन थे कहीं और।

ध्यान बड़ी खास चीज है। इसका मतलब यह हुआ कि हमको सुनने, समझने और देखने की शक्ति हमारा ध्यान दे रहा था। यह कितना महत्वपूर्ण है, हमने कभी इस पर ध्यान नही दिया। कहीं न कहीं , किसी न किसी कोण से हम यह बात जानते भी है। हम अपने बच्चों से भी कहते है कि बच्चों ध्यान से पढ़ना, ध्यान से रोड क्रॉस करना, सेहत का भी ध्यान रखना इत्यादि। दुनिया के जितने भी मत और मतान्तर है, वे सभी ध्यान लगाने की तरफ मनुष्य को जागरूक कर रहे है। सभी लोग कह रहे है कि ध्यान एकाग्र करो। इस ध्यान को सुद्ध हिंदी मे सुरुति भी कहते हैं। यह ध्यान बहुत बड़ी ताक़त है। देखते है कि यह कहाँ है?  

ये अजीब है। यह संसार के प्रत्येक जीव के अंदर आत्मा रूप मे विराजमान है। हमें आत्मा तक पहुँचने के लिए ध्यान को इकट्ठा करना पड़ेगा। परमात्मा की प्राप्ति का यही एक मात्र उपक्रम है। उदाहरण के लिए जिस प्रकार हम अनाज पैदा करने के लिए खेत जोतते है, खाद डालते है, बीज बोते है, सिंचाई करते है। यह सब कृषि का एक उपक्रम है।  इसी प्रकार परमात्मा की प्राप्ति के लिए मनुष्य द्वारा कोई उपक्रम किया जा रहा है तो वह है ध्यान । जैसे पूर्ण अक्षर ज्ञान होने के लिए मनुष्य पहले बोलना सीखता है ,फिर लिखना। इसी प्रकार ध्यान की समझ को पाने के लिए उसको पूजा, पाठ, अरदास, नमाज, जप, तप, व्रत इत्यादि का सहारा लेना पड़ता है।यह विधि ध्यान को एकाग्र करने की प्रथम सीढ़ी है। प्रश्न  खड़ा होता है कि परमात्मा को प्राप्त करने के लिए ध्यान की जरूरत क्या है ? इसकी प्रासंगिकता क्या है?   क्या ध्यान के अलावा किसी अन्य चीज से परमात्मा को नही पाया जा सकता ?  इसका जबाब देने के लिए कोई तयार नही। इसका उत्तर आ भी नही सकता क्योंकि ध्यान जैसा अन्य कोई  असाधारण विकल्प हमारे पास उपलब्ध नहीँ है। 

ध्यान के अंदर आँखें भी हैं। केवल ध्यान की आँखें ही परमात्मा का दीदार कर सकती हैं। इसी ध्यान मे कान भी हैं, जो परमात्मा की आवाज को सुन सकते हैं। इसी ध्यांन के पैर भी है जो परमात्मा तक जा सकते है। इसी ध्यान के हाथ भी हैं जो परमात्मा के चरण स्पर्श कर सकते हैं। अगर आप गहराई से थोडा चिंतन करें तो यह आत्मा रुपी ध्यान  सभी प्राणियों मे दिखाई देगी। 



गीता मे वासुदेव कृष्ण ने अर्जुन से कहा , हे अर्जुन, इस आत्मा की आँखें नही है फिर भी यह सभी दिशाएँ एक साथ देख सकती है। हमारा शरीर सभी दिशासों मे एक साथ नही देख सकता। हम किसी भी क्रिया को अपनाकर अपने शारीरिक अंगों से एक साथ सभी दिशाओं मे काम नही कर सकते। यह गुप्त रहस्य है कि जिस आत्मा के अंगों की यहां बात की जा रही है, वे शरीर के अंगों का क्रियान्वयन कर रहे है। मतलब शरीर की आँखों के पीछे आत्मा की आँखें हमको दृश्य दिखा रही हैं।आत्मा के पैर, शरीर के पैरों को चला रहे हैं इत्यादि। जिस समय यह स्थूल शरीर काम कर रहा है, उस समय इसके पीछे आत्मा के अंग काम कर रहे हैं। जैसे ही आत्मदेव शरीर से निकला, शरीर के अंग मृत हो जाएंगे। सही होते हुए भी अक्रियासील रहेंगे। यह बड़ा जटिल विज्ञान है। जब भी हम खुद के प्रयासों से इस शरीर से आत्मा को एकत्रित करने का प्रयास करते है, कई रुकावटें खड़ी हो जाती हैं। यह रुकावटें मन की होती हैं,  जो हमारी आत्मा को एकाग्र नही होने देता। 

मन ने इस कदर इस आत्मा को बंधनो मे दाल दिया है, कि ध्यान ध्यान एकाग्र करते समय बाधायें खड़ी हो जा रही है।ध्यान एकाग्र हो ही नही पा रहा है। अब इसी आत्मा को छुड़ाने के लिए कोई डुबकियां लगा रहा है, कोई जड़ पदार्थों की भक्ति कर रहा है, कोई कहीं जा रहा है, कोई प्राणों का योग कर रहा है, कोई हठ योग कर रहा है। कोई सन्यासी बन रहा है, कोई जंगलों का रास्ता देख रहा है। लेकिन कोई भी मनुष्य इन शैतानी ताक़तों से अपने आप को नही छुड़ा पा रहा है, जिस ताक़त ने इस आत्मा को बांधा हुआ है। इस मन की ताक़त बड़ी शातिर और ताक़तवर है। इससे बचना बड़ा मुश्किल है।इसने मनुष्य को भ्रमित किया हुआ है। मनुष्य का इतना जोर नही कि वह इससे निकल पाये। 

हम सब वर्तमान की उपासना पद्धतियों को देख रहे है, जो क्रमशः सगुण और निर्गुण हैं। शास्त्रानुसार ये दोनों भक्तियां मोक्ष दायिनी है। इनको सब कर रहे हैं। लेकिन भक्ति का भेद जानना बड़ा मुश्किल काम है। यथार्थ भक्ति के तत्व को जाने बगैर , आत्मा का बंधन नही छूट पायेगा। आत्मा के बंधनो को छुड़ाने के लिए बड़े बड़े ऋषी मुनियों ने घोर तपस्याएँ की। उन्होंने अपने शरीर को गला दिया, अपने ऊपर दीमक चढ़वा ली, अन्न जल छोड़ दिया । वे घर छोड़ के सन्यासी भी हो गए। फिर भी बंधनो को नही छुड़ा पाये। इस ताक़त की रूकावट ने उनको भी आत्मा तक नही जाने दिया। इसका मतलब साफ़ है कि कुछ विरोधी शक्तियां हमारे शरीर मे निवास कर रही हैं, जिनका काम विशेष रूप से आत्मा को पिजड़े से बाहर नही निकलने देना है, बल्कि और बंधनो मे बाँधना है, जब तक कि पिजड़ा स्वतः ही समयानुसार क्षतिग्रस्त न हो जाए। इससे बचने का एक ही उपाय है वो है "सतगुरु"। 

सतगुरु को हमारे वैज्ञानिको ने तथ्यों के आधार पर स्थापित किया हुआ है। सतगुरु के पास एक ऐसी अलौकिक ताक़त है कि वे आत्मा के बंधनो को छुड़ा सकता है। सतगुरु के पास जो औसधी है , वो है "नाम"। इसलिए लोग सतगुरुवों के पास नाम लेने के लिए जाते हैं। यहां पर ये बात गौर करने की है कि यह नाम कोई साधारण नाम नही है। अगर यह नाम कोई वाणी होता, तो दो चार नाम तो कोई साधारण बालक भी बोल देगा। बच्चा भी दस पांच नाम जानता ही है। पवित्र रामायण मे गोस्वामी जी ने नाम की महिमा को बोला है। उन्होंने लिखा "कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर सब उतरो पारा" । पवित्र गुरुग्रंथ साहिब मे गुरु नानक देव ने भी लिखा " नानक नाम जहाज है, जो चढ़े सो उतरे पार"। यहां पर मनुष्य से एक भूल हो गयी। भूल ऐसी कि घर से चले थे मंजिल पाने की और पर रास्ता भटक गए। नाम की परतें खोलने पर पता चलता है कि इस नाम को ना तो कोई पढ़ सकता है, ना लिख सकता है, और न कोई देख सकता है।  पर सतगुरु के पास ऐसी ताक़त है कि वे इस नाम को आपतक पहुँचा देते है।  कोई साधारण नाम का प्रयोग आप अपनी इच्छा से नही कर सकते।

 जैसे खाने पीने मे आप समुन्दर के पानी का प्रयोग नही कर सकते।जहां जहां समुन्दर का पानी जाता है, वहां वहां मरुस्थल बन जाता है यानि रेत ही रेत। नमक की बहुत ज्यादा मात्रा होने के कारण यह जमीन को ऊसर बना देता है। इसको न पीया जा सकता है, और अ नहाया जा सकता है।आपने सूना भी होगा, लोग समुन्दर मे प्यासे मर जाते है। जिस प्रकार समुन्दर के पानी को बादल लेकर आते है और मीठा जल बरसाते है, चंदन का पेड़ अपनी खुसबू को लोक लोकान्तर तक पहुँचाने मे सक्षम नही होता। हवा उसकी खुसबू को दूर तक ले जा सकती है।इसी प्रकार सतगुरु भी परमात्मीय सत्ता को परिशोधित करके आप तक पहुँचा देते है। यह ताकत उनके पास होती है। जैसे बादलों की ताक़त, हवा की ताक़त वैसे ही सतगुरु की ताक़त है। परमात्मा रूपी ताक़त संतजन अपनी ध्यान की शक्ति से उठाकर लाते है। उसी को "नाम" कहा गया है। इस नाम को एकाग्रता की शक्ति से ही प्रदान किया जा सकता है। जिसमे मनुष्य को चेतन करने की क्षमता मौजूद होती है। कभी कभी हम गुरु महाराजों से कहते भी है कि महाराज हमारा ध्यान रखना। वो इसलिए कह रहे है कि उनका ध्यान हमेसा परमात्मा मे लगा रहता है। जिस प्रकार पारस पत्थर के संपर्क मे आकर लोहा स्वर्ण मे तब्दील हो जाता है, इसी प्रकार सतगुरु के ध्यान की ताक़त से हृदय मे प्रकाश प्रज्वलित हो जाता है। अन्यथा अन्य कोई भी बाहरी प्रकाश चाहे वह सूर्य का ही भले कईं न हो, आत्मा को प्रकाशित नहीँ कर सकता। जहां एक बार हृदय प्रकाशित हो गया तो दिव्य दृष्टि खुल जाती है और शरीर के अंदर बैठे और छुपे मत्सर जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार रुपी गुप्त शत्रु साफ़ साफ़ दिखाई देने लगते हैं जो आज तक आत्मा को परमात्मा की तरफ जाने मे सबसे बड़ी रुकावट बने हुए थे। यहीँ से परमात्मा रुपी आत्मा का इनके साथ संघर्ष सुरु हो जाता है। चूँकि आत्मा ईस्वर का अंश होने के कारण सर्वशक्तिमान है, इसलिए ये मत्सर रुपी शत्रु कुछ समय बाद हारकर समर्पण कर देते है, और आपका मन धीरे धीरे आपके नियंत्रण मे आ जाता है। आज तक मन आपके ऊपर सवार होकर आपसे न जाने कैसे कैसे पाप कर्म करवा रहा था, पर अब मन के ऊपर आप सवार हो गए। आओ खुद ही समझ सकते है कि जो मनुष्य मन रुपी घोड़े के ऊपर सवार हो , वह क्या नही कर सकता। क्योंकि "मन के जीते जीत है, मन के हारे हार" । 

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