19 सितंबर 2016

रामायण की चोपाई के अर्थ का अनर्थ।

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आपने यदि रामायण पढ़ी हो तो कुछ याद हो न हो ,विशेषकर सुन्दरकाण्ड की एक चोपाई पर पूरा ध्यान चला जाता है । ढोल गंवार शुद्र पशु नारी, सकल तारणा के अधिकारी । इतिहास बताता है कि भारत की आज़ादी से पहले विदेशी आक्रमणकारियों ने उपने देशों के संस्कृत विद्वानों के द्वारा सनातन धर्म को विकृत करने के लिए कुचक्र चलाये गए थे जिसमें वे काफी हद तक सफल भी रहे। इसमें उन्होंने रामायण की चौपाई मे सकल तारणा को सकल ताड़ना बना दिया। शब्दों का यह ऐसा मामूली फेरबदल था कि पूरे श्लोक का अर्थ ही बदल दिया गया। पर एक न एक दिन सच्चाई सामने आ ही जाती है क्योंकि सच परेसान जरूर हो सकता है किन्तु पराजित कभी नहीँ।आइये इस चोपाई के शब्दों का अर्थ समझने की कोसिस करते है।
१. ढोल (वाद्य यंत्र)- ढोल को हमारे सनातन संस्कृति में उत्साह का प्रतीक माना गया है। इसके थाप से हमें नयी ऊर्जा मिलती है। इससे जीवन स्फूर्तिमय और उत्साहमय हो जाता है।आज भी विभिन्न अवसरों पर ढोलक बजाया जाता है। इसे शुभ माना जाता है।
२. गंवार (गांव के रहने वाले लोग )- भारत की आधी आबादी गांव मे बसती है। पाया जाता है कि गाँव के लोग छल-प्रपंच से दूर अत्यंत ही सरल स्वभाव के होते हैं, साथ ही अत्यधिक परिश्रमी भी होते है । जो अपने परिश्रम से धरती माता की कोख से अन्न इत्यादि पैदा कर संसार में सबकी भूख मिटाते हैं। आदि-अनादि काल से ही अनेकों देवी-देवता और संत महर्षि गण गाँव में ही उत्पन्न होते रहे हैं। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि सरलता में ही ईश्वर का वास होता है।
३. शुद्र (जो अपने कर्म व सेवाभाव से इस लोक की दरिद्रता को दूर करे)। सारे वर्ण कर्मों के अनुकूल है। जन्म से कोई छोटा बड़ा नही है। सेवा वह श्रेष्ठ कर्म है जिससे हमारे जीवन व दूसरों के जीवन का उद्धार होता है । जो मनुष्य सच्ची सेवा व कर्म भाव से लोक का कल्याण करे, वही ईश्वर का प्रिय पात्र होता है। कर्म ही पूजा है।
४. पशु  (जो एक निश्चित पाश में रहकर हमारे लिए उपयोगी हो) - प्राचीन काल और आज भी हम अपने दैनिक जीवन में भी पशुओं से उपकृत होते रहे हैं। पसुवों का मानव जीवन पर बहुत उपकार है। ये अलग बात है कि  मानव ने पशूओं को अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए बहुत हानि पहुँचाई है। पहले वाहन और कृषि कार्य में  पशुओं का ही उपयोग किया जाता था। आज भी हम दूध, दही. घी , मट्ठा , पनीर, क्रीम, इत्यादि के लिए हम पशुओं पर ही निर्भर हैं। पशुओ के बिना हमारे जीवन का कोई औचित्य ही नहीं है। वर्षों पहले जिसके पास जितना पशु होता था उसे उतना ही समृद्ध माना जाता था। गोऊ धन, गज धन  को रत्नों की खान से कमतर नही आंका जाता था। सनातन में पशुओं को प्रतीक मानकर पूजा जाता है।
५. नारी ( जगत -जननी, आदि-शक्ति, मातृ-शक्ति )- नारी के बिना इस चराचर जगत की कल्पना ही मिथ्या है।  नारी का हमारे जीवन में माँ, बहन ,बेटी , पत्नी इत्यादि के रूप में बहुत बड़ा योगदान है। नारी के ममत्व से ही हम हम अपने जीवन को भली-भाँती सुगमता से व्यतीत कर पाते हैं। विशेष परिस्थिति में नारी पुरुष जैसा कठिन कार्य भी करने से पीछे नहीं हटती है। जब जब हमारे ऊपर घोर विपत्तियाँ आती है तो नारी दुर्गा, काली, लक्ष्मीबाई बनकर हमारा कल्याण करती है। इसलिए सनातन संस्कृति में नारी को पुरुषों से अधिक महत्त्व प्राप्त है।

सकल तारणा के अधिकारी से यह तात्पर्य है-
१. सकल=  सबका
२. तारणा= उद्धार करना
३. अधिकारी = अधिकार रखना
उपरोक्त सभी से हमारे जीवन का उद्धार होता है ।इसलिए इसे उद्धार करने का अधिकारी कहा गया है.

अब यदि कोई व्यक्ति या समुदाय विधर्मियों या पाखंडियों के कहने पर अपने ही सनातन को माध्यम बनाकर. उसे गलत बताकर अपना स्वार्थ सिद्ध करता है तो ऐसे विकृत मानसिकता वालों को भगवान् सद्बुद्धि दे, तथा सनातन पर चलने की प्ररेणा दे। ज्ञात रहे सनातन सबके लिए कल्याणकारी था , कल्याणकारी है और सदा कल्याणकारी ही रहेगा। सनातन सरल है । इसे सरलता से समझे और औरों को भी जागरूक करें। कुतर्क पर न चले। अपने पूर्वजों पर सदेह करना अपनी संस्कृति को कमजोर करना है, महापाप है।
इसलिए जो भी रामचरितमानस सुन्दरकाण्ड के चौपाई का अर्थ गलत समझाए तो उसे इसका अर्थ जरूर समझाए और अपने धर्म की रक्षा करे। अपने से कमजोर को प्रताड़ित करना, उसको परेसान करना, उसको खा जाने वाली जानवर प्रवृति को ध्यान मे रखकर ही पूर्वजों ने धर्म की स्थापना करने की मजबूरी महसूस की गयी होगी। जिसमें प्रत्येक जीव पर दया और परोपकार को अनिवार्य रूप से धारण किये जाने वाले धर्म का आधार बनाया गया होगा । जो इसके  विपरीत चले, उसको अधर्म के रूप मे परिभाषित किया गया है। क्योंकि मजहब नहीँ सिखाता आपस मे बैर रखना।

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