2 सितंबर 2016

तत्व ज्ञान।

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कहा जाता है कि दुनिया मे सबसे बड़ा ज्ञान कोई है तो वह है आत्म ज्ञान यानि अपने को जानना। जानना मतलब ज्ञान और न जानना मतलब अज्ञान।यदि आप किसी चीज के बारे मे विस्तृत जानकारी रखते है तो कहा जायेगा कि आपको उस चीज का ज्ञान है इसके उलट यदि आप वस्तु की विस्तृत जानकारी नही रखते तो कहा जायेगा कि आपको उस चीज की जानकारी नही है यानी आप अज्ञान मे  हैं । आत्म  तत्व को किसी किताब के माध्यम से समझना अत्यंत कठिन है। इसको प्राप्त करने के लिए सतगुरु की आवश्यकता पड़ेगी। वैसे तो आजकल दुनिया मे कई तरह के धार्मिक गुरु है , पर गुरु और सतगुरु मे अंतर है और यह अंतर बहुत बारीक है। सतगुरु मतलब सातवाँ गुरु। जैसे हमें अक्षर ज्ञान के लिए किताबों और स्कूलो का सहारा लेना जरूरी है उसी प्रकार आध्यात्मिक तत्व ज्ञान के लिए भी सतगुरु के पास जाना पड़ेगा। केवल गुरु ये काम नही कर पायेगा। पी एच डी करने के लिए लोअर क्लास से अपर क्लास तक कई गुरु बदलने पड़ते है जो अपनी योग्यता और अनुभव के आधार पर हमारे ज्ञान को पूर्ण करते हैं। क्लास 1 का गुरु पी एच डी नही पढा सकता है , हाँ जिसने पी एच् डी करी हो वह जरूर नीचे की कक्षाओं की पढ़ाई की जानकारी रखता होगा।यह सम्भव है।
अध्यात्म की क्लास मे भी पढाई इसी प्रकार होती है ताकि आपका ज्ञान विभिन्न गुरुओं के ज्ञान को पाकर ज्ञान के उच्च शिखर तक पहुँच सके।  आध्यात्मिक क्षेत्र मे माता पिता को प्रथम गुरु बताया गया है जो नवजात शिशु को पैदा करते है। दूसरा गुरु गर्भावस्था से शिशु को सावधानी पूर्वक बाहर ले कर आने वाली दाई को कहा गया। तीसरा गुरु उसे कहा गया जिसने शिशु का नामकरण किया, उसका एक उपयुक्त नाम सुझाया । दुनिया के लोग अब उसे इनके द्वारा सुझाये नाम से ही जानेंगे। चोथे गुरु के रूप मे शिक्षक को जिम्मेदारी दी गयी कि वह शिशु को अक्षर ज्ञान कराये ताकि शिशु अपनी बात समाज के सामने रख सके और लोगों की बातों को समझ सके। पांचवा गुरु वह हुआ जिसने बड़े होने पर विवाह संस्कार किया और कैसे जीना है, कैसे एक दुसरे की भावनाओं का ध्यान रखना है, इसकी शिक्षा दी। छटे गुरु ने धर्म की शिक्षा दी और बताया की इस धर्म को अपनाकर तुम ईस्वर प्राप्ति करना ताकि तुमदोनो का जीवन सफल हो सके । परंतु सातवे गुरु ने जो किया वह असाधारण था। सतगुरु ने उसको सारे धर्मों से ऊपर उठाकर एक ईस्वर मे जोड़ दिया।यह एक ऐसी बीमारी का इलाज़ था जिसको समझकर कोई संसय नही रह गया, मेरा तुम्हारा ईस्वर,  छोटा बड़ा ईस्वर, अच्छा बुरा  इत्यादि इन सबका भेद खत्म हो गया।  सभी धर्मो के  धर्मावलम्बी जानते है कि ईस्वर एक है परन्तु मानते नहीँ। सभी को अन्धेरा छांटने वाले की कमी महसूस हो रही है । सतगुरु ने  सारे संसय खत्म कर दिए।
सतगुरु ने बताया कि जब आत्मा ने प्राणों को धारण किया तब वह जीव बना। जीव यानी जिसमें भी जान है वो जीव है। जीव की जान उसके प्राण है। जीव के जब प्राण निकल जाते है तो वह आत्मा बन जाता है। प्राण यानी प्राणवायु। यह प्राणवायु भी पंचम भौतिक तत्वों मे से एक तत्व है। किसी भी जीव की काया या सरीर पञ्च भौतिक तत्वों से बना है । इन तत्वों के नाम क्रमशः पृथ्वी तत्व, जल तत्व, वायु तत्व, अग्नी तत्व और आकास तत्व हुए। जीव की काया और उसके कर्म करने के लिए माया  भी इन्ही पन्च तत्वों  से बनी है जो हमको दिखाई भी दे रही है । बनाने वाले ने सभी तत्वों का एक गुण बनाया है कि तत्व ही तत्व का नास करेगा। जिससे एक दिन सिर्फ एक तत्व रह जाएगा जिसको नास करने या न करने का अधिकार केवल उसको रहेगा। क्योंकि वह सर्वशक्तिमान है। सभी तत्वों का नास हो जाने के कारण इन तत्वों को नासवान् कहा गया। वैज्ञानिक द्रष्टीकोण से इस केमिस्ट्री को देखा जाए कि कैसे तत्व ही तत्व का नास करता है ? पृथ्वी तत्व को जल तत्व अपने आप मे घोलित कर लेता है, पृथ्वी तत्व रहता ही नही।  जल तत्व को अग्नी तत्व सुखा देती है, जल रहता ही नही। अग्नी तत्व को वायू तत्व बुझा देती है, अग्नी रहती ही नही। वायू तत्व को आकाश तत्व विलोम कर देता है।वायू तत्व रहता नही। सब तत्वों के समाप्त होने के बाद भी अंतिम तत्व बचा रह जाता है, उसको समाप्त करने की ताकत केवल वह एक मे है जो है वह अंतिम ,सर्वशक्तिमान, सबका पिता, सबका मालिक । वह जब तक चाहे सृस्टि को बनाये रखे, यह उसकी अपनी इच्छानुसार तय है , यह कार्य उसके अलावा अन्य कोई नही कर सकता। प्रश्न पैदा होता है कि वह क्या है जिसका नास हो जाता है और वह क्या है जिसका नास नही होता। इसे ही सत्य और असत्य कहा गया। असत्य यानि जिसका नास होता है और सत्य अविनासी, जिसका कभी नास नही हो सकता। इस प्रकार हम कह सकते है कि काया और माया जो भी पंच भोतिक तत्वों से बनी है यह नासवान् होने के कारण असत्य है। तो फिर सत्य क्या है?  सत्य आत्मा है  आत्मा परमात्मा का अंस होने के कारण सभी जीवों मे सामान रूप से होते हुए अविनासी है। तभी तो कहा जाता है कि सरीर मरता है परंतु आत्मा नही मरती। सभी शास्त्रों मे आत्मा के सम्बन्ध मे उल्लेख है कि आत्मा अजर, अमर और अविनासी है और लगभग सभी धर्म इस बात को लेकर सहमत भी हैं। आत्मा को किसी शरीर को धारण करने की आवश्यकता नही है किन्तु जैसे बंदर घड़े के अंदर हाथ डालकर चना निकाल कर खाने की कोसिस मे अपनी मुट्ठी मे चनों को पकड़ता है और उसका हाथ घड़े के मुँह मे फस जाता है, अब न चने खाने को मिलते हैं और ना ही घड़ा उसके हाथ से छूटता है। जबकी सच्चाई यह है कि बन्दर घड़े के बंधन से अपने को मुठी खोलकर छुड़ा सकता है पर उसको यह युक्ति बताने वाला चाहिए। दरअसल बन्दर की ताकत ने खुद उसको बंधन मे डाल दिया है। इसी प्रकार आत्मा ने अपनी  ताक़त ने शरीर को पकड़ा हुआ है। अब उसे सतगुरु की जरूरत है को उसे बंधन मुक्त होने की युक्ति बताये। आत्मा शरीरों को तब तक धारण करते रहती है जब तक उसे इससे मुक्त होने का सच्चा मार्ग और ज्ञान प्राप्त न हो जाए। किताबों मे यह ज्ञान मिलना अति दुर्लभ है। यह कार्य सतगुरु बखूबी करेगा।

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