23 सितंबर 2016

श्राद्ध महिमा

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जीवात्मा का अगला जीवन पिछले संस्कारो से बनाता है | अत: श्राद्ध करके यह भावना की जताई है कि उनका अगला जीवन अच्छा हो |श्रद्धा और मंत्र के मेल से पितरो की तृप्ति के निमित्त जो विधि होती है उसे श्राद्ध कहते है | इसमें पिंडदानादि श्रद्धा से दिये जाते है | जिन पितरों के प्रति हम कृतज्ञतापूर्वक श्रद्धा व्यक्त करते है, वे हमारे जीवन की अडचनों को दूर करने में हमारी सहायता करते है |

 'वराह पुराण' में श्रद्धा की विधि का वर्णन करते हुए मार्कन्ड़ेयजी गौरमुख ब्राम्हणसे कहते है :'विप्रवर ! छहों वेदांगों को जाननेवाले, यज्ञानुष्ठान में तत्पर, भानजे, दौहित्र, श्वसुर, जामाता, मामा, तपस्वी ब्राम्हण, पंचाग्नि में तपनेवाले, शिष्य,संबंधी तथा अपने माता-पिता के प्रेमी ब्राम्हणों को श्राद्धकर्म के लिए नियुक्त करना चाहिए |' विचारशील पुरुष को चाहिए कि जिस दिन श्राद्ध करना हो उससे एक दिन पूर्व ही संयमी, श्रेष्ट ब्राह्मणों को निमंत्रण दे दे | श्राद्धकर्ता पुरुष को घर आये हुए ब्राह्मणों के चरण धोने चाहिए | फिर अपने हाथ धोकर उन्हें आचमन कराना चाहिए | तत्पश्चात उन्हें आसन पर बिठाकर भोजन कराना चाहिए | पितरों के निमित्त अयुग्म अर्थात एक, तीन, पाँच, सात इत्यादि की संख्या में ब्राह्मणों को भोजन कराने की व्यवस्था करनी चाहिए |


यज्ञेश्वरो यज्ञंसमस्तनेता भोक्ता व्ययात्मा हरीरिश्वरोत्र | तत्संनिधानाद्पयान्तु सद्यो रक्षांस्यशेशान्यसुराश्च्य सर्वे || विष्णु पुराण (३.१६.१६ ) में आता है : 'श्रद्धायुक्त व्यक्तियों द्वारा नाम और गोत्र का उच्चारण करके दिया हुआ अन्न, पित्रुगण को वे जैसे आहार के योग्य होते है वैसा ही होकर मिलता है |'

भोजन के लिए बना अन्न अत्यंत मधुर, भोजनकर्ता की इच्छा होना चाहिए | पात्रों में भोजन रखकर श्राद्धकर्ता को अत्यंत सुन्दर एवं मधुर वाणी से कहना चाहिए कि' हे महानुभावो ! अब आप लोग अपनी इच्छा के अनुसार भोजन करे |' श्राद्ध की विधि पूर्ण कराने के बाद ब्राम्हण मौन होकर भोजन आरंभ करे | यदि उस समय कोई ब्राम्हण हँसता या बात करता है तो वह हविष्य राक्षसों का भाग हो जाता है | जब ब्राम्हण लोग भोजन करते हो तो उस समय श्राद्धकर्ता पुरुष श्रद्धापूर्वक भगवान् नारायण का स्मरण करे |जब निमंत्रित ब्राम्हण भोजन से तृप्त हो जाये तो भूमि पर थोडा-सा अन्न डाल देना चाहिए | आचमन के लिए उन्हें एक-एक बार शुद्ध जल देना आवश्यक है | तदनंतर भलीभांति तृप्त हुए ब्राम्हणों से आज्ञा लेकर भूमि पर उपस्थित सभी प्रकार के अन्न से पिंडदान करने का विधान है | श्राद्ध के अंत में बलिवैस्वदेव का भी विधान है | श्राद्ध के अंत में दान देते समय हाथ में काले तिल, जौ और कुशा के साथ पानी लेकर ब्राम्हण को दान देना चाहिए ताकि उसका शुभ फल पितरों तक पहुँच सके नहीं तो असुर लोग हिस्सा ले जाते है | ब्राम्हण के हाथ में अक्षत (चावल) देकर यह मंत्र बुलवाया-बोला जाता है : अक्षतं वास्तु में पुण्यं शान्ति पुष्टिधृतिश्च में | यदिच्छेयस कर्मलोके तदस्तु सदा मम || ‘मेरा पुण्य अक्षय हो, मुझे शांति, पुष्टि और घृति प्राप्त हो, लोक में जो कल्याणकारी वस्तुएँ हे वे सदा मुझे मिलती रहे |’ उपरोक्त अर्थ की प्रार्थना भी की जा सकती है |

 मारे जो सबंधी देव हो गये है, जिनको दूसरा शरीर नही मिला है वे पितृलोक में अथवा इधर-उधर विचरण करते है, उनके लिए पिण्डदान किया जाता है | जो शरीर में नहीं रहे है, पिण्ड में है,उनका नौ तत्वों का पिण्ड रहता है “चार अन्त:करण और पाँच ज्ञानेद्रियाँ | उनका स्थूल पिण्ड नहीं रहता है वरन वायुमय पिण्ड रहता है | वे अपनी आकृति दिखा सकते है किन्तु आप उन्हें छू नहीं सकते | दूर से ही वे आपकी दी हुई चीज को भावनात्मक रूप से ग्रहण करते है | दूर से ही वे आपको प्रेरणा आदि देते है अथवा कोई-कोई स्वप्न में भी मार्गदर्शन देते है |


नित्य श्राद्ध : यह श्राद्ध जल द्वारा, अन्न द्वारा प्रतिदिन होता है | काम्य श्राद्ध : जो श्राद्ध कामना रखकर किया जाता है, उसे काम्य
श्राद्ध कहते है | वृद्ध श्राद्ध : विवाह, उत्सव आदि अवसर पर वृद्धों के आशीर्वाद लेने हेतु किया जानेवाला श्राद्ध वृद्ध श्राद्ध कहलता है | पार्व श्राद्ध : मंत्रो से पर्वो पर किया जानेवाला श्राद्ध पार्व श्राद्ध है | गोष्ठ श्राद्ध : गौशाला में किया जानेवाला श्रद्धा गोष्ठ श्राद्ध कहलाता है | शुद्धि श्राद्ध : पापनाश करके अपने को शुद्ध करने के लिए जो श्राद्ध किया जाता है | दैविक श्राद्ध : देवताओं की प्रसन्नता के उद्देश्य से दैविक श्राद्ध किया जाता है | कर्मांग श्राद्ध : गर्भाधान, सोमयाग, सीमन्तोन्नयन आदि से आनेवाली संतति के लिय किया जाता है | तुष्टि श्राद्ध : देशान्तर में जानेवाले की तुष्टि के लिये जो शुभकामना की जाती है, | क्षया: यां सांत्वश्रिक श्राद्ध : बारह महीने होने पर श्राद्ध के दिनों में जो विधि की जाती है, उसे क्षया: यां सांत्वश्रिक श्राद्ध कहते है  जो पूर्णमासी के दिन श्राद्धादि करता है उसकी बुद्धि, पुष्टि, स्मरणशक्ति, धारणाशक्ति, पुत्र-पौत्रादि एवं ऐश्वर्य की वृद्धि होती। वह पर्व का पूर्ण फल भोगता है। इसी प्रकार प्रतिपदा धन-सम्पत्ति के लिए होती है एवं श्राद्ध करनेवाले की प्राप्त वस्तु नष्ट नहीं होती। द्वितिया को श्राद्ध करने वाला व्यक्ति राजा होता है। उत्तम अर्थ की प्राप्ति के अभिलाषी को तृतिया विहित है। यही तृतिया शत्रुओं का नाश करने वाली और पाप नाशिनी है। जो चतुर्थी को श्राद्ध करता है वह शत्रुओं का छिद्र देखता है अर्थात उसे शत्रुओं की समस्त कूटचालों का ज्ञान हो जाता है। पंचमी तिथि को श्राद्ध करने वाला उत्तम लक्ष्मी की प्राप्ति करता है। जो षष्ठी तिथि को श्राद्धकर्म संपन्न करता है उसकी पूजा देवता लोग करते हैं। जो सप्तमी को श्राद्धादि करता है उसको महान यज्ञों के पुण्यफल प्राप्त होते हैं और वह गणों का स्वामी होता है। बृहस्पति कहते हैं- "श्राद्धविषयक चर्चा एवं उसकी विधियों को सुनकर जो मनुष्य दोषदृष्टि से देखकर उनमें अश्रद्धा करता है वह नास्तिक चारों ओर अंधकार से घिरकर घोर नरक में गिरता है। योग से जो द्वेष करने वाले हैं वे समुद्र में ढोला बनकर तब तक निवास करते हैं जब तक इस पृथ्वी की अवस्थिति रहती है। 

 
जो मनुष्य इस श्राद्ध के माहात्म्य को नित्य श्रद्धाभाव से, क्रोध को वश में रख, लोभ आदि से रहित होकर श्रवण करता है वह अनंत कालपर्यंत स्वर्ग भोगता है। समस्त तीर्थों एवं दानों को फलों को वह प्राप्त करता है

श्राद्धं काल में शरीर द्रव्य, स्री, भूमि, मन, मंत्र और ब्राम्हण ये सात चीजे विशेष शुद्ध होनी चाहिए | श्राद्ध में तिन बातों को ध्यान में रखना चाहिए |शुद्धि, अक्रोध और अत्वरा (जल्दबाजी नहीं करना) | श्राद्ध में कृषि और वाणिज्य का धन उत्तम, उपकार के बदले दिया गया धन मध्यम और व्याज, सूद एवं छल-कपट से कमाया गया धन अधम माना जाता है | उत्तम धन से देवता और पितरों की तृप्ति होती है, वे प्रसन्न होते है | मध्यम धन से मध्यम प्रसन्नता होती है और अधम धन से छोटी योनि (चांडाल योनि) में जो अपने पितर है उनको तृप्ति मिलती है | श्राद्ध में जो अन्न इधर-उधर छोड़ा जाता है उससे पशु योनि एवं इतर योनि में भटकते हुए हमारे कुल के लोगों को तृप्ति मिलती है |

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