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15 अगस्त को भारत 70वें स्वतंत्रता वर्ष में प्रवेश कर गया है। अंग्रेजों को भारत छोड़े तकरीबन 69 साल हो गए लेकिन आज भी गुलामी की एक निशानी हमारे देश में मौजूद है। आपको जान कर आश्चर्य होगा कि आज भी एक रेलवे ट्रैक ब्रिटेन के कब्जे में है। नैरो गेज (छोटी लाइन) के इस ट्रैक का इस्तेमाल करने वाली इंडियन रेलवे हर साल एक करोड़ 20 लाख की रॉयल्टी ब्रिटेन की एक प्राइवेट कंपनी को देनी पड़ती है।इस रेल ट्रैक पर शकुंतला एक्सप्रेस के नाम से सिर्फ एक पैसेंजर ट्रेन चलती है। अमरावती से मुर्तजापुर के 189 किलोमीटर के इस सफर को यह 6-7 घंटे में पूरा करती है। अपने इस सफर में शकुंतला एक्सप्रेस अचलपुर, यवतमाल समेत 17 छोटे-बड़े स्टेशनों पर रुकती है। 100 साल पुरानी 5 डिब्बों की इस ट्रेन को 70 साल तक स्टीम का इंजन खींचता था। इस इंजन को 1921 में ब्रिटेन के मैनचेस्टर की एक फैक्ट्री में बनाया गया था। 15 अप्रैल 1994 को शकुंतला अक्सप्रेसक के स्टीम इंजन को डीजल इंजन से बदल दिया गया। इस रेल रूट पर लगे सिग्नल आज भी ब्रिटिशकालीन हैं। इन सिग्नलों का निर्माण इंग्लैंड के लिवरपूल में 1895 में हुआ था। 7 कोच वाली इस पैसेंजर ट्रेन में प्रतिदिन एक हजार से ज्यादा लोग ट्रेवल करते हैं।
रॉयल्टी
15 अगस्त को भारत 70वें स्वतंत्रता वर्ष में प्रवेश कर गया है। अंग्रेजों को भारत छोड़े तकरीबन 69 साल हो गए लेकिन आज भी गुलामी की एक निशानी हमारे देश में मौजूद है। आपको जान कर आश्चर्य होगा कि आज भी एक रेलवे ट्रैक ब्रिटेन के कब्जे में है। नैरो गेज (छोटी लाइन) के इस ट्रैक का इस्तेमाल करने वाली इंडियन रेलवे हर साल एक करोड़ 20 लाख की रॉयल्टी ब्रिटेन की एक प्राइवेट कंपनी को देनी पड़ती है।इस रेल ट्रैक पर शकुंतला एक्सप्रेस के नाम से सिर्फ एक पैसेंजर ट्रेन चलती है। अमरावती से मुर्तजापुर के 189 किलोमीटर के इस सफर को यह 6-7 घंटे में पूरा करती है। अपने इस सफर में शकुंतला एक्सप्रेस अचलपुर, यवतमाल समेत 17 छोटे-बड़े स्टेशनों पर रुकती है। 100 साल पुरानी 5 डिब्बों की इस ट्रेन को 70 साल तक स्टीम का इंजन खींचता था। इस इंजन को 1921 में ब्रिटेन के मैनचेस्टर की एक फैक्ट्री में बनाया गया था। 15 अप्रैल 1994 को शकुंतला अक्सप्रेसक के स्टीम इंजन को डीजल इंजन से बदल दिया गया। इस रेल रूट पर लगे सिग्नल आज भी ब्रिटिशकालीन हैं। इन सिग्नलों का निर्माण इंग्लैंड के लिवरपूल में 1895 में हुआ था। 7 कोच वाली इस पैसेंजर ट्रेन में प्रतिदिन एक हजार से ज्यादा लोग ट्रेवल करते हैं।
रॉयल्टी
इस रूट पर चलने वाली शकुंतला एक्सप्रेस के कारण इसे शकुंतला रेल रूट के नाम से भी जाना जाता है।अमरावती का इलाका अपने कपास के लिए पूरे देश में प्रसिद्ध था। कपास को मुंबई पोर्ट तक पहुंचाने के लिए अंग्रेजों ने इसका निर्माण करवाया था। 1903 में ब्रिटिश कंपनी क्लिक निक्सन द्वारा शुरू किया गया रेल ट्रैक को बिछाने का काम 1916 में जाकर पूरा हुआ। 1857 में स्थापित इस कंपनी को आज सेंट्रल प्रोविन्स रेलवे कंपनी के नाम से जाना जाता है। ब्रिटिशकाल में प्राइवेट संस्थायें रेल नेटवर्क को फैलाने का काम करती थी।1951 में भारतीय रेल का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। इस रेल रूट के बदले भारत सरकार हर साल इस कंपनी को 1 करोड़ 20 लाख की रॉयल्टी देती है। यह बात इस तरफ इसारा करती है कि आज़ाद भारत मे आज भी इस ट्रैक पर ब्रिटेन की इस कंपनी का कब्जा है। इसके देख-रेख की पूरी जिम्मेदारी भी इसपर ही है। हर साल पैसा देने के बावजूद यह ट्रैक बेहद जर्जर है। रेलवे सूत्रों का कहना है कि, पिछले 60 साल से इसकी मरम्मत भी नहीं हुई है। इसपर चलने वाले जेडीएम सीरीज के डीजल लोको इंजन की अधिकतम गति 20 किलोमीटर प्रति घंटे रखी जाती है। इस सेंट्रल रेलवे के 150 कर्मचारी इस घाटे के मार्ग को संचालित करने में आज भी लगे हैं।इस ट्रैक पर चलने वाली शकुंतला एक्सप्रेस पहली बार 2014 में और दूसरी बार अप्रैल 2016 में बंद किया गया था। स्थानीय लोगों की मांग और सांसद आनंद राव के दबाव में सरकार को फिर से इसे शुरू करना पड़ा। सांसद आनंद राव का कहना है कि, यह ट्रेन अमरावती के लोगों की लाइफ लाइन है। अगर यह बंद हुई तो गरीब लोगों को बहुत दिक्कत होगी।भारत सरकार ने इस ट्रैक को कई बार खरीदने का प्रयास भी किया लेकिन तकनीकी कारणों से वह संभव नहीं हो सका है।
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