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अब मन की क्रियाओं पर प्रकाश डालते है जिसको अहंकार भी कहते है। यह जीव का सबसे नजदीकी शत्रु है। उदाहरण के लिए यदि मन ने कहा कि आम खाना है तो बुद्धि फैसला करती है कि आम का मौसम है कि नही ? । यह काम बहुत तेज़ी से होता है। दुनिया और इसके जीवों का संचालन करने वाले निरंजन यानी काल ब्रह्म , महाकाल ने इस काया और माया का सिस्टम बहुत तेज़ बनाया हुआ है। यह नेटवर्क इतना तेज़ और बारीक है कि जीव के समझ मे नही आ रहा है। मन की भाषा इतनी जबरदस्त है कि फौरन बुद्धि फैसला करके बोल देती है कि आम का सीजन नही है। बस इस फैसले के आते ही मन चुप बैठ जाता है। यह सन्देश मुख के पास भी पहुँच गया कि अभी आम का सीजन नही है। यह मुख भी शांत हो गया। अगर बुद्धि ने फैसला किया कि आम का सीजन है तो बुद्धि फैसला करती है कि क्या आम खरीदने के लिए पैसे हैं ? क्योंकि आम तो खरीदना है। बुद्धि फैसला कर लेती है कि हाँ पैसे हैं। आम खरीदेंगे आम खाएंगे। जीव की कुछ इच्छाओं की पूर्ति होती है और कुछ इच्छाओं की पूर्ती नही होती। इसी का नाम सुख और दुःख है। यह इसलिए होता है कि बुद्धि इसका विश्लेषण करती है। उदाहरणस्वरूप यदि हमारा मन क्रोधित है, तो सामने वाले पर खींच कर एक तमाचा लगा देता है। अब बुद्धि कहती है कि फलाने व्यक्ति के दोस्त रिस्तेदार आकर हमला भी कर सकते हैं और यह पुलिस मे रिपोर्ट भी कर सकता है, तुम्हारा नुक्सान हो जायेगा, इसलिए तमाचा मत मारो। बस वहीँ मन डर जाता है दब जाता है। अगर बुद्धि ने कहा कि कूटो तो बस पीटना सुरु कर दिया। यह काम बड़ी बारीकी से हो रहा है। चलो बुद्धि ने फैसला कर भी लिया कि आम का सीजन भी है और पैसे भी हैं इसलिए आम खाएंगे। अब आगे क्या होता है ? अब चित्त आता है। सब महकमे अलग अलग हैं। चित्त आकर बताता है कि आम कहाँ मिलेगा ? चित्त को कैसे पता चला, क्योंकि इंद्रियाँ उसकी पूरक थीं। चित्त को याद था कि एक दिन जाते जाते आँखों ने देखा था, वहां पर फलों की दूकान है। इन आँखों से जो भी हम देखते हैं, नाक से जो भी सूंघते है, कानों से जो भी सुनते है, मुँह से जो भी बोलते है और त्वचा से जैसा भी स्पर्श मिले, इन सबके चित्र चित्त मे फीड हो जाते हैं। इस चित्त मे इतनी गड़नायें जमा हो सकती है जिसकी कोई मिसाल नही। सुपर कंप्यूटर भी इसकी मेमोरी संग्रह के आगे फेल है। इसको चित्रगुप्त भी कहा गया। ये पांचों ज्ञानेन्द्रियाँ इस चित्त की पूरक हैं, इसकी सहयोगी हैं। चित्त ने कहा फलाने जगह आम है वहां से मिल जायेगा।अब अहंकार सामने आता है। अहंकार मतलब जो भी एक्टिविटी होगी। यह भी सभी इंद्रियों का पूरक है सहयोगी है। हाथ, पैर, मल स्थान, मूत्र स्थान और मुँह जो किसी चीज़ को खाने और बोलने मे सरीर की मदद करता है। अहंकार के सामने आते ही पैर चल देते है, मुह बोला आम चाहिए, हाथों ने पैसों का लेन देन किया, मुह ने आम खाया, पचने के बाद ठोस और अपविष्ट मल मूत्र की इंद्रियों ने बाहर किया। तो ये सब पूरा मन हुआ कि नही? बड़े बड़े ज्ञानी पुरुष माथा पच्ची करके इस बात को नही समझ पा रहे है। इसी तरह मनुष्य कार्य कर रहा है। क्योंकि ये पांचों ज्ञानेन्द्रियाँ( जिनसे किसी वस्तु का ज्ञान होता है ) क्रमशः आँख, नाख, कान, मुँह, त्वचा और कर्मेन्द्रियाँ ( जिनके माध्यम से कार्य किया जाता है ) क्रमशः हाथ, पैर, मल द्वार, मूत्र द्वार, मुँह ( मुँह ज्ञानेंद्रि भी है और कर्मेंद्रि भी क्योंकि मुँह ज्ञानेंद्रि के रूप मे स्वाद का अनुभव और कर्मेंद्रि के रूप मे बोलने का कार्य करता है ) और चार अन्तःकरण की इंद्रियाँ क्रमशः मन, बुद्धि , चित्त, अहंकार ये सब मिलाकर चोदह इंद्रियाँ प्रत्येक जीव मे उपस्थित होती हैं। सभी इंद्रियां एक दुसरे की पूरक हैं, सहयोगी हैं। आत्मा का इन सब इंद्रियों से लेना देना नही है क्योंकी आत्मा इंद्रियातीत है, इंद्रियों से परे है। उसमें इन चोदह इंद्रियों का समावेश नही है। जिसमे ये चोदह इंद्रियां और पांच तत्व ( पृथ्वी तत्व, जल तत्व, वायु तत्व, अग्नी तत्व और आकाश तत्व ) मौज़ूद है वह मन है। यह रहस्य है। जिस प्रकार स्त्री और पुरुष एक दुसरे के पूरक है इसी प्रकार ये इंद्रियां भी मन की पूरक हैं। जो पति पत्नी अच्छे जोड़े हैं वे एक दुसरे की इच्छा के खिलाफ नही चलते हैं। वे दोनों एक दुसरे की इच्छाओं का सम्मान करते हैं क्योंकी सादी के समय यही संकल्प लिया जाता है। यह मन कैसा है? यह मन क्रूर है, बड़ा खराब है। हम सब किसी को भी अच्छा या बुरा गुणवत्ता के आधार पर कहते हैं। उदाहरण के लिए लोग कहते है फलाना आदमी गाय जैसा है। हम शेर को खतरनाक बोलते है, क्योंकि शेर का भरोसा नही किया जा सकता। एक तो वह मांसाहारी है दूसरा वह ताक़तवर है, बड़ा फुर्तीला है। इसी प्रकार मन स्वभाव से क्रूर है। आग जला देती है, पानी डूबा देता है क्योंकि यह इसका गुण है। वायू स्पन्दन करती है क्योंकि यह वायू का गुण है। इसी प्रकार मन के चार रूप है, चार वृत्तियाँ है, काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार। इसलिए मन को काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार कहा गया। यह मन है। यह विनास की तरफ ले जाता है। अब इनमे से किसको अच्छा कहोगे ? इन्हीं पाँचों के कारण इस दुनिया मे सब गड़बड़ है। क्योंकी यह सब मन से संचालित हो रहे हैं। काम उत्पन्न हुआ, कामातुर हो गया। विषय विकारों मे पड़ा, बलात्कार किया, परायी स्त्री का अपमान किया, किशी की लड़की को लेकर भाग गया। सवाल ये उठता है कि ये मन इतना ताक़तवर क्यों है? इस मन ने इसने बड़े बड़े ऋषिओं को, बड़े बड़े तपस्वियों को पटकी मार दी। ऋषी परासर एक हज़ार साल तप करके लौटे, नाविक की बेटी मचोदर्री पर फ़िदा हो गए और कुकर्म करके अपना तप खो दिया। ये इतने बड़े ताकतवर शत्रु है कि हमारे काबू मे आने वाले हैं ही नही। ये अंदर के दुश्मन बड़े तगड़े हैं।
मन को जानना बहुत जटिल है। यही बात वासुदेव कृष्ण ने अर्जुन से कही कि हे अर्जुन यदि तुम आत्मा का साक्षात्कार करना चाहते हो तो सबसे पहले अपने मन का निग्रह करो। इसके बिना आत्म साक्षात्कार सम्भव नही। आत्मसाक्षात्कार मे सबसे बड़ी बाधा कोई है तो वह तुम्हारा मन है। अर्जुन बोले हे वासुदेव, हे जनार्दन ये मन परिवर्तनसील है। हवा की गाँठ बांध दूंगा हालांकि यह सम्भव नही लेकिन प्रयास करूंगा। आप कहें तो समुन्दर का मंथन करने का भी प्रयास करूँगा हालांकि यह भी बड़ा कठिन है, आकाश मे शून्य को ढूंढना बहुत जटिल है मगर आप कहें तो भी प्रयास करूँगा, पर मे मन को वस मे नहीँ कर पाउँगा। मैंने ध्यान को एकाग्रचित करने के बहुत प्रयास किये मगर मे हार चुका हूँ, ये वस मे आता ही नही है।
यह मन आत्मज्ञान मे और आत्मज्ञान के रास्ते पर जाने चलने वाले के लिए सबसे बड़ी बाधा है। सवाल यह उठता है कि क्यों है ये बाधक? अँधेरा हमारा बाधक है। हम अन्धकार मे वस्तु का बोध नही कर पाते। हमको डर लगता है। इसलिए मनुष्य अन्धकार को पसंद नही करता, वह केवल नींद के समय अन्धकार को पसंद करता है। क्योंकि नींद खुद भी अन्धकार है। नींद अज्ञान है। मनुष्य प्रकाश चाहता है। आपका पाला किसी मामूली चीज से नही पड़ा है। आत्मा को बांधकर रखने वाली चीज़ कोई मामूली चीज़ नही है कि दो कथा सुनते ही मसला हल हो जाएगा, दो डुबकियां लगाकर हम निर्मल हो जायेंगे। यह मसला ऐसे हल होने वाला नही है।
शास्त्रों मे उल्लेख मिलते है कि कामदेव ने सबसे बड़े योगी शिवजी को मोहिनी रूप बनाकर मोहित कर लिया था। क्योंकि यह "काम" बहुत ताकतवर है। अगर आप काम से निपट लिए तो इसका एक और भाई बैठा हुआ है, इससे भी बड़ा वह है क्रोध। ये जितने भी राक्षस जीव के मन मै रह रहे हैं, ये बडे विनाशक हैं। इनसे कभी कोई अच्छा काम नही हो सकता। साँप को यदि हम दूध पिलाएंगे तो वह दूध का विष बना देगा और काटना भी नही छोड़ेगा। इसलिए हमारे अंदर जो यह दुश्मन बैठे है, बहुत खूंखार हैं। यह हमारे दुश्मन इसलिए कहलाते है कि ये सारे विकार आत्मा को जगत की और घसीट कर ले जाते हैं। जगत के अंदर दो आकर्षित चीज़ हैं जिनके अंदर मनुष्य उलझता है। एक वासना और दूसरा दौलत। अब यह देखते हैं कि यह विकार कार्य कैसे करते है?
यदि हम गौर करें तो हमें पता चलता है कि ये "काम विकार" कैसे चलता है। परंतु इसको देखने के लिए दिव्य दृष्टि । हम सब जानते है कि मल मूत्र की इंद्रियां घृणित है। चाहे वह स्त्री की हो या पुरुष की या किसी अन्य जीव की हौं, ये गंदी हैं। अगर यह सुंदर होती तो लोग इनको दिखाए दिखाए फिरते, जैसे लोग मसल्स दिखाते हैं। जिनकी जांगे मज़बूत होती है तो वह नेकर पहनकर अपनी जांगे दिखाता है। अगर यह मल मूत्र की इंद्रियां सुंदर होती तो लोग इनकी नुमाइस लगाने मे चूकते नही । इसलिए इनको ढके ढके घूमते हैं। जब सारे सरीर को नंगा करके दिखाया जा रहा है तो इनको भी दिखाया जा सकता था ? परंतु ये घृणित है, इसलिए इनको ढका जा रहा है। हम यह सब जानते भी हैं पर विचार नही करते। यह "काम" भी मन के अंदर रहता है। वही इसका ठिकाना है। जब काम की इंद्री प्रबल होती है तो उस समय बुद्धि मे एक ताक़त आती है, एक सम्मोहन आता है जो हमें उस और विवस करता है। काम वह अग्नि है जो बुद्धि, आत्मा, व शरीर को जलाकर जीवन को नरक बना देती है।
ऋषियों ने इसी वजह से तपस्या करी कि ज्ञान दृष्टि से हम इस सम्मोहन को तोडें , ताकि उन विषयों के लिए हमारा सम्मोहन न बने, उनका ध्यान न टूटे । लेकिन वे मन द्वारा उत्पन्न सम्मोहन को नही तोड़ पाये, नही रोक पाये। यह मन सबको नचा देता है। जब देवताओं के राजा इंद्र कामातुर हुए तो शाश्त्रों के अनुसार वे गौतम ऋषी की स्त्री का सील भंग करने पहुँच गए। तो क्या ये मन की मार थीं कि नहीं? निश्चित रूप से यह मन की ही मार थी। जिस प्रकार अच्छा भोजन देखकर जीभ ललचाती है। सुंदर नारी देखने के बाद वासना कुत्ते की तरह ललचाती है। इसी प्रकार सुंदर स्त्री देखने के बाद आदमी के विकार फौरन जाग जाते हैं ताकी विषयों का आनंद प्राप्त हो जाए। विषयों को बस आनंद चाहिये, चाहे वह उचित हो या अनुचित। लेकिन बुद्धि ने कहा ना भाई ना, पुलिश केस हो जायेगा, इसके दोस्त मारेंगे, इसका भाई मारेगा। तुरंत कामवासना वहीं पर ठंडा पड़ जाता है। इसका मतलब ये हुआ कि ये पूरा मामला अपने ही अंदर से निकल रहा है।
रावण ने भी क्रोध किया जो विनास की तरफ गया ।जब देवराज़ इन्द्र कामातुर हुआ तो मन ने पटकी मारी। जब परासर ऋषी एक हज़ार साल की तपस्या के बाद जब वापस आश्रम लोट रहे थे तो नदी पार करते हुए नाविक की बेटी मचोदरी पर कामातुर हो गए। बाद मे अपने वादे के अनुसार उससे विवाह कर बैठे और हज़ार सालों के तप का परिणाम एक झटके मे शून्य हो गया। तब भी मन ने ही पटकी मारी।
इसी प्रकार क्रोध वस ब्रह्मा ने अपने छ पुत्रों को भस्म कर दिया । यहाँ भी मन ने ही पटकी मारी। इसका मतलब हमारे पूर्वजों से प्रमाण मिल रहा है कि ये विकार काबू मे होने वाले नहीँ हैं। आदमी अपनी ताकत से अपने मन को वस मे नहीँ कर सकता। इसलिए मन को खतरनाक कहा गया। यह पूरी दुनिया मन माने कामों मे लगी हुई है। कुछ लोग तो यह भी कह रहे है कि जो मन कहे वो कर लो, मन को मत मारो। इस काया के अंदर अभी काम, क्रोध के अलावा और बड़े बड़े राक्षस जैसे लोभ, मोह और अहँकार भी बैठे हैं, जो इनसे भी ताक़तवर है।
लोभ तो बड़ा खतरनाक है। यह वह तृष्णा है जो सुख शांति व सब्र का नाश कर देती है। ये कोई बाहर से थोडी आया ? यह तो हमारे अंदर ही था। जैसे एक बढ़िया गाडी देखी, मन ने विचार किया कि मे भी गाडी लूँ। बस मन ने बेमानी, ठगी, चार सौ बीसी, किसी भी तरह करके गाडी लेनी है। यह मनुष्य को बुराइयों की तरफ धकेटला है। लोभ इन्सान में भय उत्पन्न करता है क्योंकि धन और आभूषनों की चोरी या जमीन जायदाद को किसी के द्वारा हडपने का भय सदा उसे सताता रहता है । बेईमानी से प्राप्त किए धन या जायदाद को कानून से छुपाना भी आवश्यक होता है इसलिए कानून व समाज का भय होना लोभी इन्सान की स्वभाविक प्रक्रिया है ।
मोह सभी ब्याधियों का मूल है। मोह वह भंवर है जिसमे फंसकर जीवन दुखों से भर जाता है। हर एक शख्स इसकी चपेट मे है। यह सब पर अपना वर्चस्व बनाये हुए है। बड़े बड़े ऋषियो को पुत्र मोह हो गया।
अहंकार इससे भी बड़ा शत्रु है। अहंकार वह दलदल है जिसमे फंसकर मित्रों व शुभचिंतकों का साथ छूट जाता है। यह असाध्य शत्रु है। किसी तपस्या, किसी साधना, किसी योग से काबू मे आने वाला नहीं है। शिवजी से बड़ा कोई योगी नहीं हुआ। पर उनको भी काम ने घेर लिया। शिवजी को जब क्रोध आया तो वह तीन लोक का विनास करने को तयार हो गए। क्रोध ऐसा अजगर जो बुद्धि, व्यवहार, और आचरण को निगल जाता है। यह हम सब लोग शास्त्रो मे पढ़ रहे है। चार चार युगों का ध्यान करने वाले,हज़ार हज़ार साल घोर तप करने वाले, शरीर पर दीमक जम जाने तक ध्यान करने वाले भी इस मन को नहीँ जीत पाये तो क्या साधारण मनुष्य इनसे टक्कर ले पायेगा ? ।आजकल तो लोग पांच मिनट भी ध्यान मे नहीँ बैठ पाते है। सवाल यह है कि फिर पार कैसे हों?
इससे बचने का केवल और केवल एक ही उपाय है। वो है सतगुरु ! हम अपनी आत्मा के कल्याण के लिए जो भी युक्तियाँ कर रहे हैं, क्या वो पर्याप्त हैं? जिस प्रकार अन्धकार की निवर्ति का साधन केवल प्रकाश है । वो अलग बात है कि प्रकाश का सृजन हम कैसे करें। सूर्य के अलावा सबका प्रकाश कृतिम है। पर सूर्य का प्रकास भी इस आत्मा को रोशन नही कर सकता।इसी प्रकार तत्व ज्ञान के बिना आत्मा को मोक्ष नही मिल सकता। जिस शरीर को आत्मा ने धारण किया है, इसको तो मोक्ष कभी भी नही मिलता,इसको तो यहीं भस्म हो जाना है चाहे वह किसी भी जीव का क्यों न हो। मोक्ष की भागीदार केवल आत्मा है जो परमात्मा के अंस के रूप मे सभी जीवों मे समान रूप से मौज़ूद है।
यही बात योगा वशिस्ठ रामायण मे भी आती है जब राम ने अपने गुरु वशिष्ठ जी से प्रश्न किया कि आत्साक्षात्कार कैसे ही सकता है ? तब गुरु वशिष्ठ ने कहा कि हे राम, आत्साक्षात्कार के बाद मनुष्य इस संसार सागर से पार हो जाता है। श्री राम ने कहा कि हे गुरुदेव इस आत्मा का ऐसा क्या ज्ञान है कि जिसे पाकर मनुष्य संसार सागर से पार हो जाता है ? इसका ऐसा क्या जलवा है? गुरु वशिष्ठ ने कहा कि हे राम जिस तरह भृमवस रस्सी मे सांप की कल्पना करके मनुष्य भयभीत हो जाते है, आपको भय आ जाता है। पर अगले ही पल जब आपको जब ज्ञान होता है कि यह सांप नहीँ रस्सी है, आपका सारा भय समाप्त हो जाता है। फिर चाहकर भी आओ उस रस्सी को देखकर पहले जितने भयभीत नहीँ हो सकते, इसी प्रकार एक बार आत्मा का ज्ञान ही जाने पर आपको मृत्यू भय समाप्त हो जाता है। तब इस जगत का अस्तित्व स्वतः ही समाप्त हो जाता है। और आत्मज्ञान पाकर पता चल जाता है कि मे शरीर नही एक अजर, अमर और अविनाशी आत्मा हूँ। मेरी कोई इंद्रियां भी नहीँ हैं और ना ही मे पञ्च भोतिक पदार्थों से बना हूँ।जिस प्रकार रस्सी का ज्ञान होने पर साँप का अस्तित्व समाप्त हो गया, हे राम इसी प्रकार आत्मज्ञान होने पर यदि मनुष्य इस जगत को सच माने तो वह नहीँ मान पायेगा।उसको इस ज्ञान का आभास होता रहेगा कि जगत मिथ्या है एक झूट है।क्योंकि यही सत्य है। इसी प्रकार तत्व ज्ञान को प्राप्त होने के बाद हे राम इस संसार का अस्तित्व रहता ही नहीँ। आत्मज्ञान से पूर्व मनुष्य मे भृम की अवस्था रहती है।और भृम वस यह संसार सच लगता है।वरना ये तो है ही नहीँ। यह संसार मन यानि ब्रह्म ही के द्वारा उत्पन्न है। इसका संचालक भी मन है ब्रह्म है। हे राम आप जिस संसार को देख कर सच मान रहे हो, ये आपके चित्त की सुपर्णा है। यह कल्पना मात्र है। हे राम ये आत्मा ही ध्यान है, चेतना है, ईस्वर का अंश है और अजर, अमर, अविनासी है। एक समान रूप से जगत के सभी जीवों मे विद्यमान है।हे राम आप ध्यान पूर्वक मेरी बातों को सुन भी रहे है, समझ भी रहे है और मुझे देख भी रहे है। परंतु एक क्षण के लिए भी यदि आपका ध्यान मुझसे हट कर कहीं और चला जाये तो हे राम आपकी आँखें मेरी तरफ होते हुए भी आप न मुझे देख पाओगे, न सुन पाऐंगे और न ही समझ पाएंगे। आपकी आँखों मे देखने की शक्ति, कानो के सुनने की शक्ति और मस्तिक्ष के समझने की शक्ति के पीछे ध्यान की ही शक्ति काम कर रही है। वाहन का संचालक भले ही वाहन का चालक हो, परंतु चालक भी बिना ईंधन के वाहन का संचालन नही कर सकता।इसी प्रकार इस संसार का संचालक भले ही ब्रह्म हो परंतु बिना पूर्णब्रह्म की शक्ति के बगैर संसार का संचालन नामुमकिन है। मन की समस्त क्रियाएँ ध्यान की शक्ति से ही संचालित है।अन्यथा मन शव समान है। इसलिए हे राम यदि आप आत्म साक्षात्कार करना चाहते हो तो मन को भली भांति सनझने और इस पर विजय पाने के अलावा अन्य कोई विकल्प नही।
मनुष्य की समस्त क्रियाओं, आचारों का आरंभ मन से ही होता है। मन सतत तरह-तरह के संकल्प, विकल्प, कल्पनाएं करता रहता है।मन की जिस ओर भी रूचि होती है,उसका रुझान उसी ओर बढता चला जाता है, परिणाम स्वरूप मनुष्य की सारी गतिविधियां उसी दिशा में अग्रसर होती है। जैसी कल्पना हो उसी के अनुरूप संकल्प बनते है और सारे प्रयत्न-पुरुषार्थ उसी दिशा में सक्रिय हो जाते है। अन्ततः उसी के अनुरूप परिणाम सामने आने लगते हैं.। मन जिधर या जिस किसी में रस-रूचि लेने लगे, उसमें एकाग्रचित होकर श्रमशील हो जाता है। यहाँ तक कि उसे लौकिक लाभ या हानि का भी स्मरण नहीं रह जाता। प्रायः मनुष्य प्रिय लगने वाले विषय के लिए सब कुछ खो देने तो तत्पर हो जाता है। इतना ही नहीं अपने मनोवांछित फल को पाने के लिए बड़े से बड़े कष्ट सहने को भी तैयार हो जाता है। जबकि आत्मा इन सबसे परे है।
यदि मन की सही अर्थों मे व्याख्या की जाए तो कहना गलत न होगा कि यह मन काल है। मन जीवन भर जीव को नचाये रखता है और बेहाल बना देता है। जीव जीवनपर्यंत परेसान ही रहता है। लेकिन मन की चाल को समझ नही पाटा है। आत्मतत्व की और बढ़ने मे यदि मन की बाधा समझ मे आ गयी तो मोक्ष की मंज़िल मे पहुचना आसान हो जायेगा।
अब मन की क्रियाओं पर प्रकाश डालते है जिसको अहंकार भी कहते है। यह जीव का सबसे नजदीकी शत्रु है। उदाहरण के लिए यदि मन ने कहा कि आम खाना है तो बुद्धि फैसला करती है कि आम का मौसम है कि नही ? । यह काम बहुत तेज़ी से होता है। दुनिया और इसके जीवों का संचालन करने वाले निरंजन यानी काल ब्रह्म , महाकाल ने इस काया और माया का सिस्टम बहुत तेज़ बनाया हुआ है। यह नेटवर्क इतना तेज़ और बारीक है कि जीव के समझ मे नही आ रहा है। मन की भाषा इतनी जबरदस्त है कि फौरन बुद्धि फैसला करके बोल देती है कि आम का सीजन नही है। बस इस फैसले के आते ही मन चुप बैठ जाता है। यह सन्देश मुख के पास भी पहुँच गया कि अभी आम का सीजन नही है। यह मुख भी शांत हो गया। अगर बुद्धि ने फैसला किया कि आम का सीजन है तो बुद्धि फैसला करती है कि क्या आम खरीदने के लिए पैसे हैं ? क्योंकि आम तो खरीदना है। बुद्धि फैसला कर लेती है कि हाँ पैसे हैं। आम खरीदेंगे आम खाएंगे। जीव की कुछ इच्छाओं की पूर्ति होती है और कुछ इच्छाओं की पूर्ती नही होती। इसी का नाम सुख और दुःख है। यह इसलिए होता है कि बुद्धि इसका विश्लेषण करती है। उदाहरणस्वरूप यदि हमारा मन क्रोधित है, तो सामने वाले पर खींच कर एक तमाचा लगा देता है। अब बुद्धि कहती है कि फलाने व्यक्ति के दोस्त रिस्तेदार आकर हमला भी कर सकते हैं और यह पुलिस मे रिपोर्ट भी कर सकता है, तुम्हारा नुक्सान हो जायेगा, इसलिए तमाचा मत मारो। बस वहीँ मन डर जाता है दब जाता है। अगर बुद्धि ने कहा कि कूटो तो बस पीटना सुरु कर दिया। यह काम बड़ी बारीकी से हो रहा है। चलो बुद्धि ने फैसला कर भी लिया कि आम का सीजन भी है और पैसे भी हैं इसलिए आम खाएंगे। अब आगे क्या होता है ? अब चित्त आता है। सब महकमे अलग अलग हैं। चित्त आकर बताता है कि आम कहाँ मिलेगा ? चित्त को कैसे पता चला, क्योंकि इंद्रियाँ उसकी पूरक थीं। चित्त को याद था कि एक दिन जाते जाते आँखों ने देखा था, वहां पर फलों की दूकान है। इन आँखों से जो भी हम देखते हैं, नाक से जो भी सूंघते है, कानों से जो भी सुनते है, मुँह से जो भी बोलते है और त्वचा से जैसा भी स्पर्श मिले, इन सबके चित्र चित्त मे फीड हो जाते हैं। इस चित्त मे इतनी गड़नायें जमा हो सकती है जिसकी कोई मिसाल नही। सुपर कंप्यूटर भी इसकी मेमोरी संग्रह के आगे फेल है। इसको चित्रगुप्त भी कहा गया। ये पांचों ज्ञानेन्द्रियाँ इस चित्त की पूरक हैं, इसकी सहयोगी हैं। चित्त ने कहा फलाने जगह आम है वहां से मिल जायेगा।अब अहंकार सामने आता है। अहंकार मतलब जो भी एक्टिविटी होगी। यह भी सभी इंद्रियों का पूरक है सहयोगी है। हाथ, पैर, मल स्थान, मूत्र स्थान और मुँह जो किसी चीज़ को खाने और बोलने मे सरीर की मदद करता है। अहंकार के सामने आते ही पैर चल देते है, मुह बोला आम चाहिए, हाथों ने पैसों का लेन देन किया, मुह ने आम खाया, पचने के बाद ठोस और अपविष्ट मल मूत्र की इंद्रियों ने बाहर किया। तो ये सब पूरा मन हुआ कि नही? बड़े बड़े ज्ञानी पुरुष माथा पच्ची करके इस बात को नही समझ पा रहे है। इसी तरह मनुष्य कार्य कर रहा है। क्योंकि ये पांचों ज्ञानेन्द्रियाँ( जिनसे किसी वस्तु का ज्ञान होता है ) क्रमशः आँख, नाख, कान, मुँह, त्वचा और कर्मेन्द्रियाँ ( जिनके माध्यम से कार्य किया जाता है ) क्रमशः हाथ, पैर, मल द्वार, मूत्र द्वार, मुँह ( मुँह ज्ञानेंद्रि भी है और कर्मेंद्रि भी क्योंकि मुँह ज्ञानेंद्रि के रूप मे स्वाद का अनुभव और कर्मेंद्रि के रूप मे बोलने का कार्य करता है ) और चार अन्तःकरण की इंद्रियाँ क्रमशः मन, बुद्धि , चित्त, अहंकार ये सब मिलाकर चोदह इंद्रियाँ प्रत्येक जीव मे उपस्थित होती हैं। सभी इंद्रियां एक दुसरे की पूरक हैं, सहयोगी हैं। आत्मा का इन सब इंद्रियों से लेना देना नही है क्योंकी आत्मा इंद्रियातीत है, इंद्रियों से परे है। उसमें इन चोदह इंद्रियों का समावेश नही है। जिसमे ये चोदह इंद्रियां और पांच तत्व ( पृथ्वी तत्व, जल तत्व, वायु तत्व, अग्नी तत्व और आकाश तत्व ) मौज़ूद है वह मन है। यह रहस्य है। जिस प्रकार स्त्री और पुरुष एक दुसरे के पूरक है इसी प्रकार ये इंद्रियां भी मन की पूरक हैं। जो पति पत्नी अच्छे जोड़े हैं वे एक दुसरे की इच्छा के खिलाफ नही चलते हैं। वे दोनों एक दुसरे की इच्छाओं का सम्मान करते हैं क्योंकी सादी के समय यही संकल्प लिया जाता है। यह मन कैसा है? यह मन क्रूर है, बड़ा खराब है। हम सब किसी को भी अच्छा या बुरा गुणवत्ता के आधार पर कहते हैं। उदाहरण के लिए लोग कहते है फलाना आदमी गाय जैसा है। हम शेर को खतरनाक बोलते है, क्योंकि शेर का भरोसा नही किया जा सकता। एक तो वह मांसाहारी है दूसरा वह ताक़तवर है, बड़ा फुर्तीला है। इसी प्रकार मन स्वभाव से क्रूर है। आग जला देती है, पानी डूबा देता है क्योंकि यह इसका गुण है। वायू स्पन्दन करती है क्योंकि यह वायू का गुण है। इसी प्रकार मन के चार रूप है, चार वृत्तियाँ है, काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार। इसलिए मन को काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार कहा गया। यह मन है। यह विनास की तरफ ले जाता है। अब इनमे से किसको अच्छा कहोगे ? इन्हीं पाँचों के कारण इस दुनिया मे सब गड़बड़ है। क्योंकी यह सब मन से संचालित हो रहे हैं। काम उत्पन्न हुआ, कामातुर हो गया। विषय विकारों मे पड़ा, बलात्कार किया, परायी स्त्री का अपमान किया, किशी की लड़की को लेकर भाग गया। सवाल ये उठता है कि ये मन इतना ताक़तवर क्यों है? इस मन ने इसने बड़े बड़े ऋषिओं को, बड़े बड़े तपस्वियों को पटकी मार दी। ऋषी परासर एक हज़ार साल तप करके लौटे, नाविक की बेटी मचोदर्री पर फ़िदा हो गए और कुकर्म करके अपना तप खो दिया। ये इतने बड़े ताकतवर शत्रु है कि हमारे काबू मे आने वाले हैं ही नही। ये अंदर के दुश्मन बड़े तगड़े हैं।
मन को जानना बहुत जटिल है। यही बात वासुदेव कृष्ण ने अर्जुन से कही कि हे अर्जुन यदि तुम आत्मा का साक्षात्कार करना चाहते हो तो सबसे पहले अपने मन का निग्रह करो। इसके बिना आत्म साक्षात्कार सम्भव नही। आत्मसाक्षात्कार मे सबसे बड़ी बाधा कोई है तो वह तुम्हारा मन है। अर्जुन बोले हे वासुदेव, हे जनार्दन ये मन परिवर्तनसील है। हवा की गाँठ बांध दूंगा हालांकि यह सम्भव नही लेकिन प्रयास करूंगा। आप कहें तो समुन्दर का मंथन करने का भी प्रयास करूँगा हालांकि यह भी बड़ा कठिन है, आकाश मे शून्य को ढूंढना बहुत जटिल है मगर आप कहें तो भी प्रयास करूँगा, पर मे मन को वस मे नहीँ कर पाउँगा। मैंने ध्यान को एकाग्रचित करने के बहुत प्रयास किये मगर मे हार चुका हूँ, ये वस मे आता ही नही है।
यह मन आत्मज्ञान मे और आत्मज्ञान के रास्ते पर जाने चलने वाले के लिए सबसे बड़ी बाधा है। सवाल यह उठता है कि क्यों है ये बाधक? अँधेरा हमारा बाधक है। हम अन्धकार मे वस्तु का बोध नही कर पाते। हमको डर लगता है। इसलिए मनुष्य अन्धकार को पसंद नही करता, वह केवल नींद के समय अन्धकार को पसंद करता है। क्योंकि नींद खुद भी अन्धकार है। नींद अज्ञान है। मनुष्य प्रकाश चाहता है। आपका पाला किसी मामूली चीज से नही पड़ा है। आत्मा को बांधकर रखने वाली चीज़ कोई मामूली चीज़ नही है कि दो कथा सुनते ही मसला हल हो जाएगा, दो डुबकियां लगाकर हम निर्मल हो जायेंगे। यह मसला ऐसे हल होने वाला नही है।
शास्त्रों मे उल्लेख मिलते है कि कामदेव ने सबसे बड़े योगी शिवजी को मोहिनी रूप बनाकर मोहित कर लिया था। क्योंकि यह "काम" बहुत ताकतवर है। अगर आप काम से निपट लिए तो इसका एक और भाई बैठा हुआ है, इससे भी बड़ा वह है क्रोध। ये जितने भी राक्षस जीव के मन मै रह रहे हैं, ये बडे विनाशक हैं। इनसे कभी कोई अच्छा काम नही हो सकता। साँप को यदि हम दूध पिलाएंगे तो वह दूध का विष बना देगा और काटना भी नही छोड़ेगा। इसलिए हमारे अंदर जो यह दुश्मन बैठे है, बहुत खूंखार हैं। यह हमारे दुश्मन इसलिए कहलाते है कि ये सारे विकार आत्मा को जगत की और घसीट कर ले जाते हैं। जगत के अंदर दो आकर्षित चीज़ हैं जिनके अंदर मनुष्य उलझता है। एक वासना और दूसरा दौलत। अब यह देखते हैं कि यह विकार कार्य कैसे करते है?
यदि हम गौर करें तो हमें पता चलता है कि ये "काम विकार" कैसे चलता है। परंतु इसको देखने के लिए दिव्य दृष्टि । हम सब जानते है कि मल मूत्र की इंद्रियां घृणित है। चाहे वह स्त्री की हो या पुरुष की या किसी अन्य जीव की हौं, ये गंदी हैं। अगर यह सुंदर होती तो लोग इनको दिखाए दिखाए फिरते, जैसे लोग मसल्स दिखाते हैं। जिनकी जांगे मज़बूत होती है तो वह नेकर पहनकर अपनी जांगे दिखाता है। अगर यह मल मूत्र की इंद्रियां सुंदर होती तो लोग इनकी नुमाइस लगाने मे चूकते नही । इसलिए इनको ढके ढके घूमते हैं। जब सारे सरीर को नंगा करके दिखाया जा रहा है तो इनको भी दिखाया जा सकता था ? परंतु ये घृणित है, इसलिए इनको ढका जा रहा है। हम यह सब जानते भी हैं पर विचार नही करते। यह "काम" भी मन के अंदर रहता है। वही इसका ठिकाना है। जब काम की इंद्री प्रबल होती है तो उस समय बुद्धि मे एक ताक़त आती है, एक सम्मोहन आता है जो हमें उस और विवस करता है। काम वह अग्नि है जो बुद्धि, आत्मा, व शरीर को जलाकर जीवन को नरक बना देती है।
ऋषियों ने इसी वजह से तपस्या करी कि ज्ञान दृष्टि से हम इस सम्मोहन को तोडें , ताकि उन विषयों के लिए हमारा सम्मोहन न बने, उनका ध्यान न टूटे । लेकिन वे मन द्वारा उत्पन्न सम्मोहन को नही तोड़ पाये, नही रोक पाये। यह मन सबको नचा देता है। जब देवताओं के राजा इंद्र कामातुर हुए तो शाश्त्रों के अनुसार वे गौतम ऋषी की स्त्री का सील भंग करने पहुँच गए। तो क्या ये मन की मार थीं कि नहीं? निश्चित रूप से यह मन की ही मार थी। जिस प्रकार अच्छा भोजन देखकर जीभ ललचाती है। सुंदर नारी देखने के बाद वासना कुत्ते की तरह ललचाती है। इसी प्रकार सुंदर स्त्री देखने के बाद आदमी के विकार फौरन जाग जाते हैं ताकी विषयों का आनंद प्राप्त हो जाए। विषयों को बस आनंद चाहिये, चाहे वह उचित हो या अनुचित। लेकिन बुद्धि ने कहा ना भाई ना, पुलिश केस हो जायेगा, इसके दोस्त मारेंगे, इसका भाई मारेगा। तुरंत कामवासना वहीं पर ठंडा पड़ जाता है। इसका मतलब ये हुआ कि ये पूरा मामला अपने ही अंदर से निकल रहा है।
रावण ने भी क्रोध किया जो विनास की तरफ गया ।जब देवराज़ इन्द्र कामातुर हुआ तो मन ने पटकी मारी। जब परासर ऋषी एक हज़ार साल की तपस्या के बाद जब वापस आश्रम लोट रहे थे तो नदी पार करते हुए नाविक की बेटी मचोदरी पर कामातुर हो गए। बाद मे अपने वादे के अनुसार उससे विवाह कर बैठे और हज़ार सालों के तप का परिणाम एक झटके मे शून्य हो गया। तब भी मन ने ही पटकी मारी।
इसी प्रकार क्रोध वस ब्रह्मा ने अपने छ पुत्रों को भस्म कर दिया । यहाँ भी मन ने ही पटकी मारी। इसका मतलब हमारे पूर्वजों से प्रमाण मिल रहा है कि ये विकार काबू मे होने वाले नहीँ हैं। आदमी अपनी ताकत से अपने मन को वस मे नहीँ कर सकता। इसलिए मन को खतरनाक कहा गया। यह पूरी दुनिया मन माने कामों मे लगी हुई है। कुछ लोग तो यह भी कह रहे है कि जो मन कहे वो कर लो, मन को मत मारो। इस काया के अंदर अभी काम, क्रोध के अलावा और बड़े बड़े राक्षस जैसे लोभ, मोह और अहँकार भी बैठे हैं, जो इनसे भी ताक़तवर है।
लोभ तो बड़ा खतरनाक है। यह वह तृष्णा है जो सुख शांति व सब्र का नाश कर देती है। ये कोई बाहर से थोडी आया ? यह तो हमारे अंदर ही था। जैसे एक बढ़िया गाडी देखी, मन ने विचार किया कि मे भी गाडी लूँ। बस मन ने बेमानी, ठगी, चार सौ बीसी, किसी भी तरह करके गाडी लेनी है। यह मनुष्य को बुराइयों की तरफ धकेटला है। लोभ इन्सान में भय उत्पन्न करता है क्योंकि धन और आभूषनों की चोरी या जमीन जायदाद को किसी के द्वारा हडपने का भय सदा उसे सताता रहता है । बेईमानी से प्राप्त किए धन या जायदाद को कानून से छुपाना भी आवश्यक होता है इसलिए कानून व समाज का भय होना लोभी इन्सान की स्वभाविक प्रक्रिया है ।
मोह सभी ब्याधियों का मूल है। मोह वह भंवर है जिसमे फंसकर जीवन दुखों से भर जाता है। हर एक शख्स इसकी चपेट मे है। यह सब पर अपना वर्चस्व बनाये हुए है। बड़े बड़े ऋषियो को पुत्र मोह हो गया।
अहंकार इससे भी बड़ा शत्रु है। अहंकार वह दलदल है जिसमे फंसकर मित्रों व शुभचिंतकों का साथ छूट जाता है। यह असाध्य शत्रु है। किसी तपस्या, किसी साधना, किसी योग से काबू मे आने वाला नहीं है। शिवजी से बड़ा कोई योगी नहीं हुआ। पर उनको भी काम ने घेर लिया। शिवजी को जब क्रोध आया तो वह तीन लोक का विनास करने को तयार हो गए। क्रोध ऐसा अजगर जो बुद्धि, व्यवहार, और आचरण को निगल जाता है। यह हम सब लोग शास्त्रो मे पढ़ रहे है। चार चार युगों का ध्यान करने वाले,हज़ार हज़ार साल घोर तप करने वाले, शरीर पर दीमक जम जाने तक ध्यान करने वाले भी इस मन को नहीँ जीत पाये तो क्या साधारण मनुष्य इनसे टक्कर ले पायेगा ? ।आजकल तो लोग पांच मिनट भी ध्यान मे नहीँ बैठ पाते है। सवाल यह है कि फिर पार कैसे हों?
इससे बचने का केवल और केवल एक ही उपाय है। वो है सतगुरु ! हम अपनी आत्मा के कल्याण के लिए जो भी युक्तियाँ कर रहे हैं, क्या वो पर्याप्त हैं? जिस प्रकार अन्धकार की निवर्ति का साधन केवल प्रकाश है । वो अलग बात है कि प्रकाश का सृजन हम कैसे करें। सूर्य के अलावा सबका प्रकाश कृतिम है। पर सूर्य का प्रकास भी इस आत्मा को रोशन नही कर सकता।इसी प्रकार तत्व ज्ञान के बिना आत्मा को मोक्ष नही मिल सकता। जिस शरीर को आत्मा ने धारण किया है, इसको तो मोक्ष कभी भी नही मिलता,इसको तो यहीं भस्म हो जाना है चाहे वह किसी भी जीव का क्यों न हो। मोक्ष की भागीदार केवल आत्मा है जो परमात्मा के अंस के रूप मे सभी जीवों मे समान रूप से मौज़ूद है।
यही बात योगा वशिस्ठ रामायण मे भी आती है जब राम ने अपने गुरु वशिष्ठ जी से प्रश्न किया कि आत्साक्षात्कार कैसे ही सकता है ? तब गुरु वशिष्ठ ने कहा कि हे राम, आत्साक्षात्कार के बाद मनुष्य इस संसार सागर से पार हो जाता है। श्री राम ने कहा कि हे गुरुदेव इस आत्मा का ऐसा क्या ज्ञान है कि जिसे पाकर मनुष्य संसार सागर से पार हो जाता है ? इसका ऐसा क्या जलवा है? गुरु वशिष्ठ ने कहा कि हे राम जिस तरह भृमवस रस्सी मे सांप की कल्पना करके मनुष्य भयभीत हो जाते है, आपको भय आ जाता है। पर अगले ही पल जब आपको जब ज्ञान होता है कि यह सांप नहीँ रस्सी है, आपका सारा भय समाप्त हो जाता है। फिर चाहकर भी आओ उस रस्सी को देखकर पहले जितने भयभीत नहीँ हो सकते, इसी प्रकार एक बार आत्मा का ज्ञान ही जाने पर आपको मृत्यू भय समाप्त हो जाता है। तब इस जगत का अस्तित्व स्वतः ही समाप्त हो जाता है। और आत्मज्ञान पाकर पता चल जाता है कि मे शरीर नही एक अजर, अमर और अविनाशी आत्मा हूँ। मेरी कोई इंद्रियां भी नहीँ हैं और ना ही मे पञ्च भोतिक पदार्थों से बना हूँ।जिस प्रकार रस्सी का ज्ञान होने पर साँप का अस्तित्व समाप्त हो गया, हे राम इसी प्रकार आत्मज्ञान होने पर यदि मनुष्य इस जगत को सच माने तो वह नहीँ मान पायेगा।उसको इस ज्ञान का आभास होता रहेगा कि जगत मिथ्या है एक झूट है।क्योंकि यही सत्य है। इसी प्रकार तत्व ज्ञान को प्राप्त होने के बाद हे राम इस संसार का अस्तित्व रहता ही नहीँ। आत्मज्ञान से पूर्व मनुष्य मे भृम की अवस्था रहती है।और भृम वस यह संसार सच लगता है।वरना ये तो है ही नहीँ। यह संसार मन यानि ब्रह्म ही के द्वारा उत्पन्न है। इसका संचालक भी मन है ब्रह्म है। हे राम आप जिस संसार को देख कर सच मान रहे हो, ये आपके चित्त की सुपर्णा है। यह कल्पना मात्र है। हे राम ये आत्मा ही ध्यान है, चेतना है, ईस्वर का अंश है और अजर, अमर, अविनासी है। एक समान रूप से जगत के सभी जीवों मे विद्यमान है।हे राम आप ध्यान पूर्वक मेरी बातों को सुन भी रहे है, समझ भी रहे है और मुझे देख भी रहे है। परंतु एक क्षण के लिए भी यदि आपका ध्यान मुझसे हट कर कहीं और चला जाये तो हे राम आपकी आँखें मेरी तरफ होते हुए भी आप न मुझे देख पाओगे, न सुन पाऐंगे और न ही समझ पाएंगे। आपकी आँखों मे देखने की शक्ति, कानो के सुनने की शक्ति और मस्तिक्ष के समझने की शक्ति के पीछे ध्यान की ही शक्ति काम कर रही है। वाहन का संचालक भले ही वाहन का चालक हो, परंतु चालक भी बिना ईंधन के वाहन का संचालन नही कर सकता।इसी प्रकार इस संसार का संचालक भले ही ब्रह्म हो परंतु बिना पूर्णब्रह्म की शक्ति के बगैर संसार का संचालन नामुमकिन है। मन की समस्त क्रियाएँ ध्यान की शक्ति से ही संचालित है।अन्यथा मन शव समान है। इसलिए हे राम यदि आप आत्म साक्षात्कार करना चाहते हो तो मन को भली भांति सनझने और इस पर विजय पाने के अलावा अन्य कोई विकल्प नही।
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