25 अप्रैल 2016

शरियत अल्लाह का नही मुल्ला का बनाया कानून।


सरियत में बैठे ज़्यादातर लोग न तो जज बनने की शैक्षिक योग्यता रखते हैं और न ही उनके पास क़ानूनी समझ है ।इन अदालतों में लोगों का रसूख़ देखकर मनमाने फैसले कराए जाते हैं।यह परंपरा ख़त्म होनी चाहिए.।मुसलमानों को भी यह बात समझनी चाहिए कि जब हम क्रिमिनल मामलों और बाक़ी तमाम मामलों में देश की अदालतों के फैसले मानते हैं तो फिर शादी, तलाक़ और विरासत से जुड़े निजी मामलों में अदालत के फैसले मानने पर आपत्ति क्यों हो…? तलाक के तीन मामलों में सुप्रीम कोर्ट और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के बीच की खींचतान के बीच कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने ट्‌वीट करके ऑल इंडिया मुस्लिम लॉ बोर्ड से सवाल पूछा है कि क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ या शरियत संविधान से ऊपर है ? लेकिन बोर्ड तो पहले ही कई बार कह चुका है कि सुप्रीम कोर्ट को शरियत की समीक्षा का अधिकार नहीं है. क्योंकि ये क़ुरान की रोशनी में बना अल्लाह का क़ानून है।जमीयत उलेमा-ए-हिंद इस मालमे में सुप्रीम कोर्ट में बकायदा हलफ़नामा दायर करके तलाक़ के तीन मामलों में पार्टी बन गया है ।उसका भी यही कहना है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ क़ुरान पर आधारित अल्लाह का क़ानून है. जमीयत उलेमा-ए-हिंद 1986 के बहुचर्चित शाह बानो केस में भी पार्टी बना था. नतीजा सबके सामने है. दरअसल बोर्ड और जमीयत उलेमा-ए-हिंद झूठ बोल रहे हैं. सच्चाई तो यह है कि भारत में लागू शरियत अल्लाह का नहीं बल्कि मुल्ला का बनाया हुआ क़ानून है। इसके कई प्रावधान क़ुरान की आयतों के उलट और इसकी मूल भावना के ख़िलाफ़ है। कई प्रावधान महिलाओं और यतीमों को उनके अधिकारों से वंचित करते है ।यह क़ानून सूरः निसा की आयत नंबर 35 में वर्णित तलाक़ की पूर्व शर्त आर्बिट्रेशन के ज़रिए आपसी सहमति बनाने की कोशिश किए बग़ैर ही तलाक को मान्यता दे देता है. क़ुरान की सात सूरतों में तलाक़ से संबधित कुल 44 आयते हैं, इनमें तलाक़ का तरीक़ा एकदम साफ़-साफ़ बताया गया है. इसके मुताबिक़ अगर पति-पत्नी के बीच संबंध ठीक नहीं हैं और तलाक़ की नौबत आती है तो पहले दोनों की तरफ़ से एक-एक वकील तय होगा और फिर दोनों मिलकर पति-पत्नी के बीच सुलह कराने की कोशिश करेंगे।सुलह की कोई सूरत न होने पर पति पत्नी को तलाक़ देगा।तलाक़ माहवारी ख़त्म होने पर पाकी की हालत में दी जाएगी और तलाक़ के बाद पति-पत्नी का अलग-अलग बिस्तर होगा।इस तलाक़ की इद्दत तीन महीने दस दिन या तीन माहवारी तक होगी. इस बीच अगर दोनों में सुलह हो जाए तो तलाक़ ख़त्म हो जाएगा. अगर सुलह नहीं होती है तो दो विकल्प हैं. पहला, या तो पति पत्नी को रोक ले यानी उससे निकाह कर ले या फिर दूसरा, उसे तलाक़ देकर विदा कर दे. इस पर भी इद्दत की अवधि में सुलह करने और इद्धत के बाद दोनों को आपस में निकाह करने का अधिकार है. (सूरः बक़र आयत न. 228 और 232) लेकिन तीसरी बार तलाक़ देने के बाद निकाह की गुंजाइश ख़त्म हो जाएगी. ऐसी सूरत में दोनों तभी निकाह कर सकते हैं जब औरत पहले किसी और से निकाह कर ले और उसका शौहर मर जाए या फिर उसे तलाक़ दे दे. (सूरः बक़र आयत न. 230) यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि उसके  दूसरे शौहर को भी उसे दो बार तलाक़ देकर फिर से निकाह करने का अधिकार है. लिहाज़ा दोनों के बीच शादी का रास्ता एक हद तक बंद होता है. इसीलिए क़ुरान साफ़ कहता है तलाक़ दो बार है. (सूरः बक़र आयत न. 229) मगर अफ़सोस की बात यह है कि हमारे समाज ने इसी आयत का सहारा लेकर हलाला जैसी बिदअत(कुरीति) को आम बना दिया. वास्तव में हलाला तलाक पाई बेबस औरत पर किया गया सबसे घटिया दर्जे का अपराध है. हलाला मुस्लिम समाज में एक लानत बन चुका हैै, मगर तमाम मुल्ला बेशर्मी के साथ इसकी न सिर्फ़ वकालत करते हैं बल्कि कई बार ख़ुद को ही एक रात का दूल्हा बनाकर पेश कर देते हैं. ये क़ुरान के साथ मज़ाक़ ही नहीं बल्कि खुल्लम-खुल्ला खिलवाड़ है. भारतीय शरियत क़ानून यतीम पोते को दादा की विरासत में हिस्सा नहीं देता. यह क़ानून कहता है कि अगर बाप की मौजूदगी में बेटा मर जाए तो उसका हिस्सा पोते-पोती को नहीं मिलेगा. ऐसी स्थिति में पोते-पोती (यतीम बच्चे) महज़ूब हो जाएंगे. महज़ूब होने का मतलब महरूम यानि वंचित होने से ही है. जबकि अल्लाह ने यतीमों का हक़ मारने वालों की जगह जहन्नुम बताई है. (सूरः निसा आयत न.8-10) अल्लाह की इतनी सख्त हिदायत के बावजूद मुल्लाओं ने यतीमों का  हक़ मारने का रास्ता भी निकाल लिया है. देश में इस क़ानून की शिकार लाखों मुस्लिम औरतें अपने यतीम बच्चों के हक़ के लिए दर-दर की ठोकरें खाती घूम रही हैं. लेकिन दिन में सैकड़ों बार बिस्मिल्ला हिर्हमान हिर्रहीम पढ़कर अल्लाह के कृपालु और दयालु होने की गवाही देने वाले मुल्लाओं को न तलाक़ की मारी बेबस औरतों पर दया आती है और न ही बेवा होने पर यतीम बच्चों के साथ सुसराल से निकाल दी गई औरतों पर. यतीम बच्चों की हक़ तल्फ़ी पर भी इनका दिल नहीं पसीजता. ऊपर से तुर्रा यह है कि मुल्लाओं ने धनवान मुसलमानों को भी यह समझा दिया है कि जिसके पास 7.5 तोला सोना या 52 तोला चांदी या फिर इतनी ही क़ीमत की ज़मीन या घर है उसे ज़कात देना भी जायज़ नहीं है. धनवान मुसलमानों से ज़कात का ज़्यादातर पैसा मुल्ला मदरसों रहने वाले यतीम बच्चों के लिए वसूल लेते हैं लेकिन वह पैसा उन तक पहुंचता ही नहीं है. उन बेचारों को तो दो वक़्त की रोटी मिल जाए तो ग़नीमत है. उन बच्चों का संरक्षक बनकर मुल्ला ख़ुद ही सारा पैसा हड़प लेते हैं. ज़कात के पैसों से ही वे अपनी निजी मिल्कियत की तरह मदरसे की आलीशान इमारत और अपना निजी महल खड़ा करते हैं. परिवार का पेट भी उसी ज़कात के पैसे से पालते हैं. और यह सब होता है अल्लाह के हुक्म यानी क़ुरान की आयतों के ख़िलाफ़ (सूरः निसा आयत न. 1-2 और 6). इसमें सबसे शर्मनाक बात तो यह है पढ़े लिखे मुसलमानों ने भी मुल्लागर्दी की आधीनता स्वीकर कर रखी है. ऐसे सामाजिक मुद्दों पर समाज के भीतर से कभी कोई मज़बूत आवाज़ नहीं उठती. कभी कभार कोई कोशिश करता भी है तो उसके ख़िलाफ़ कुफ्र के फ़तवे की तलवार म्यान से बाहर आ जाती है. इस पर तथाकथित मुस्लिम बुद्धिजीवी भी गर्दन झुकाकर और आंखे नीची करके मुल्लाओं की हां में हां मिलाते नज़र आते हैं. तथाकथित सेकुलर राजनीतिक दलों को मुसलमानों का वोट चाहिए, लिहाज़ा वो क्यों बर्र के छत्ते में पत्थर मारेंगे. कभी कभार संघ परिवार, बीजेपी, या फिर सुप्रीम कोर्ट बोलता है तो इसे शरियत और क़ौम के निजी मामलों में दख़ल बताया जाता है. इसके बाद इस्लाम ख़तरे में होने का हौव्वा ख़ड़ा करके मुसलमानों के भावनात्मक शोषण का खेल शुरू होता है. ग़ौरतलब है कि भारत में मुसलमान मुस्लिम पर्सनल लॉ अनुप्रयोग अधिनियम-1937 से शासित होते हैं इसके तहत शादी, मेहर, तलाक़, रख-रखाव, उपहार, वक़्फ़ और विरासत के मामलों में उनके परंपरागत निजी क़ानूनों को मान्यता मिली हुई है. लेकिन ये क़ानून स्पष्ट और संहिताबद्ध नहीं हैं. अदालतों में सारी बहस क़ुरान की आयतों, परस्पर विरोधी हदीसों के हवालों और सदियों पुराने फतवों केआधार पर होती है. जजों को भी फ़ैसला करने में परेशानी होती है. इसलिए कभी-कभी ऐसे फैसले भी आ जाते हैं जिन्हें इस्लाम विरोधी कहकर बवाल मचाया जाता है. 1986 में आए शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर मचे बवाल ने तात्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार को संसद में बिल लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने के लिए मजबूर कर दिया था. उस वक्त राजीव गांधी की कैबिनेट में मंत्री रहे आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने सरकार के इस क़दम का पुरज़ोर विरोध किया था. लेकिन उनकी आवाज़ दबा दी गई. तब संघ परिवार ने कांग्रेस पर मुल्लाओं के दबाव में काम करने का आरोप लगाया था. इससे हिंदू समाज में उपजी नाराज़गी को शांत करने के लिए बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया गया. उसके बाद क्या हुआ, किसे नहीं पता…? एक ग़लत फैसले का ख़ामियाज़ा देश आज तक भुगत रहा है. लेकिन आज पी. चिदंबरम और दिग्विजय सिंह जैसे कई दिग्गज कांग्रेसी नेता क़ुबूल कर चुके हैं कि शाह बानो मामले में तात्कालीन सरकार का फैसला ग़लत था. हैरानी की एक और बात यह है कि देश में मुसलमानों के लिए शादी का कोई क़ानून नहीं है. लेकिन शादी तोड़ने के लिए मुस्लिम विवाह विच्छेदन अधिनियम-1939 मौजूद है. यह क़ानून मुस्लिम महिलाओं को अपने पति से तलाक़ लेने का अधिकार देता है. इसके तहत महिलाओं को तलाक़ लेने के  9 आधार दिए गए हैं. यहां यह सवाल पैदा होता है कि अगर गुजारा भत्ते से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को बदलने के लिए देश की संसद क़ानून बना सकती, तलाक़ के लिए क़ानून बन सकता है तो फिर शादी, विरासत, वक़्फ़ और बाक़ी मामलों के लिए संसद में क़ानून क्यों नहीं बन सकता…? जवाब थोड़ा तीखा है. इसलिए नहीं बन सकता क्योंकि इससे भोले भाले मुसलमानों पर चल रही मुल्लाओं की हुकूमत पूरी तरह ख़त्म हो जाएगी. सारे मामले अगर अदालतों में तय होने लगेंगे तो फिर मुल्लाओं को कौन पूछेगा. उनकी भूमिका तो सिर्फ मस्जिद में नमाज़ और मदरसों में बच्चों को पढ़ाने तक ही सीमित होकर रह जाएगी. दरअसल, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और मुस्लिम पर्सनल लॉ की समीक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट की पहल का विरोध करने वाले अन्य मुस्लिम संगठनों की असली चिंता इस्लाम और मुसलमानों को बचाने की नहीं बल्कि अपनी दुकानों को बचाने की है. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड लंबे अरसे से हर ज़िले में एक शरिया अदालत गठित करने, इन्हें क़ानूनी मान्यता देने और इन अदालतों में फैसले करने वाले मुफ्तियों और आलिमों को जज का दर्ज़ा देने की मांग कर रहा है. लेकिन बोर्ड की शरिया अदालतों में बैठे ज़्यादातर लोग न तो जज बनने की शैक्षिक योग्यता रखते हैं और न ही उनके पास क़ानूनी समझ है. इन अदालतों में लोगों का रसूख़ देखकर मनमाने फैसले कराए जाते हैं. यह परंपरा ख़त्म होनी चाहिए. मुसलमानों को भी यह बात समझनी चाहिए कि जब हम क्रिमिनल मामलों और बाक़ी तमाम मामलों में देश की अदालतों के फैसले मानते हैं तो फिर शादी, तलाक़ और विरासत से जुड़े निजी मामलों में अदालत के फैसले मानने पर आपत्ति क्यों हो…? जम्मू-कश्मीर में 2007 में ही वहां की विधानसभा ने मुस्लिम समुदाय से जुड़े दीवानी मामलों को सुलझाने के लिए एक विधेयक पास करके क़ानून बना दिया. यह क़ानून राज्य के सभी फिरक़ों और सोच वाले मुसलमानों पर समान रूप से लागू होता है. अगर यह काम जम्मू-कश्मीर की विधानसभा कर सकती है तो देश की संसद ऐसा क्यों नहीं कर सकती. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को अड़ियल रवैया छोड़कर देश-दुनिया के क़ानूनी जानकार और क़ुरान व हदीसों के जानकारों की कमेटी बनाकर शादी, तलाक़, मेहर, गुज़ारा भत्ता, विरासत, गोद लेना और वक़्फ़ जैसे मसलों पर पुख्ता क़ानून का मसौदा तैयार करके संसद को सौंप देना चाहिए. इसके बाद संसद से पास होने वाला क़ानून सभी फिरक़ों के मुसलमानों पर समान रूप से लागू होगा. एक इस्लाम और एक क़ुरान पर यक़ीन रखने वाले मुसलमान आख़िर सबके लिए एक क़ानून पर राज़ी क्यों नहीं होंगे…? अगर इस्लाम औरतों, मज़लूमों और यतीमों को उनका हक़ देने की बात करता है तो शरियत में इसकी झलक भी दिखनी चाहिए।

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